अनिल अनूप
किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
आज जिस शख्सियत की चर्चा करने का प्रयास कर रहा हूं उनके लिए आज का दिन खास नहीं बल्कि हर दिन ऐसे लोगों के लिए खास होता है। मेरा सौभाग्य है कि ऐसी हस्ती से रुबरु होने के कई मौके मिले।
सुदर्शन फाकिर को गुमनामी के अंधेरे पसंद थे, लेकिन उनकी शायरी आज भी रोशन है और सदा रहेगी। उनके लाखों प्रशंसक आज भी नहीं जान पाए कि इस अजीम शायर की एक भी किताब उनके जीवनकाल में प्रकाशित क्यों नहीं हुई?
19 दिसंबर 1934 को जन्म लेने वाले अजीम शायर सुदर्शन फाकिर की कलम का सफर लगभग बचपन से शुरू हुआ था और जिस्मानी अंत 18 फरवरी 2008 तक लगातार जारी रहा। एक से एक नायाब गजलें, नज्में और नगमें लिखने वाले फाकिर को गाया तो खूब-खूब गाया, लेकिन उनके जीवनकाल में उनका एक भी संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ। हुआ तो, 2019 में जब उन्हें दुनिया से रुखसत हुए ठीक ग्यारह साल हो गए। ‘कागज की कश्ती’ उनकी इकलौती किताब है जो इस साल के अंत में छप कर आई है। इसमें उनकी प्रतिनिधि शायरी की कुछ बानगियां हैं। यकीनन इस मायने में भी वह इकलौते बड़े शायर होंगे, जिनका लिखा किताब की शक्ल में 50 साल से भी ज्यादा लंबे और शानदार लेखन के सफर के बाद अब जाकर सामने आया। जबकि उन्हें सुनने वाले दुनिया भर में लाखों की तादाद में हैं, और उनकी किताब देखने की चाहत में एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी पीढ़ी में तबदील होते गए। सुदर्शन फाकिर की गजलों, नज्मों और नगमों को बेगम अख्तर, मोहम्मद रफी, मुबारक बेगम, आशा भोंसले, पंकज उधास, मन्ना डे, हरिहरन, सुरेश वाडेकर, एस महादेवन, अभिजीत, भूपेंद्र सिंह, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति, साधना सरगम, अनुराधा पौडवाल, विनोद सहगल, गुरदास मान, विनोद राठौड़, कुमार सानू, चित्रा सिंह और जगजीत सिंह ने अपनी आवाज दी है।
अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
लैला मजनूँ के मिसालों पे हँसी आती है
जब भी तक़मील-ए-मोहब्बत का ख़याल आता है
मुझको अपने ख़यालों पे हँसी आती है
लोग अपने लिये औरों में वफ़ा ढूँढते हैं
उन वफ़ा ढूँढनेवालों पे हँसी आती है
देखनेवालों तबस्सुम को करम मत समझो
उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है
चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी “फ़ाकिर”
अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है
उनकी सबसे ज्यादा गजलों और गीतों को जगजीत सिंह ने गाया। सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह जालंधर में कालेज के दिनों के गहरे दोस्त थे और ताउम्र एक-दूसरे के पूरक बने रहे। फाकिर कहा करते थे कि वह जगजीत के बगैर अधूरे हैं और जगजीत भी ठीक ऐसा ही कहते थे। सुदर्शन फाकिर ने बाकायदा एक इंटरव्यू में कहा था कि वह अपना लिखा सिर्फ जगजीत सिंह को देना चाहते हैं। जगजीत सिंह ने उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रिय नज्म ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी…’ गाई है, जो दुनिया भर में आज भी उसी शिद्दत के साथ सुनी जाती है। जगजीत सिंह का एक भी लाइव कार्यक्रम ऐसा नहीं था, जिसमें उन्होंने इसे न गाया हो। इसकी फरमाइश होती ही होती थी। ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी….’ की अपनी एक कहानी है। यह उनके लाखों प्रशंसकों की पसंदीदा नज्म है तो जगजीत सिंह और सुदर्शन फाकिर की भी सबसे ज्यादा पसंदीदा रचना है। इसमें फाकिर के अपने बचपन की अमिट छवियां हैं। बचपन से ही सुदर्शन जी अलहदा स्वभाव के थे। अपने परिवार से भी बहुत कम बोलते थे। पढ़ाई में मन कभी नहीं लगा, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि पढ़ाई छोड़ दी हो। हां, स्कूल से कभी-कभी बंक मार लिया करते थे फिरोजपुर के रत्तेवाली गांव में इनका बचपन बीता। वहां शहर के पास ही नहर बहती है।
एक दिन स्कूल न जाकर नहर की ओर चल दिए और एक जगह थक कर बैठे तो कागज की कश्ती बनाई और पानी में फेंक दी। इतने में बारिश आ गई तो कश्ती गिली होकर डूब गई। फिर पास के एक टीले पर जा बैठे और रेत का घरौंदा बनाया। चूंकि स्कूल का समय पूरा होने पर ही घर जा सकते थे। यह बात तब की है जब वह सातवीं में पढ़ते थे। इसी तरह की बेफिक्री उनके मन में बस गई। बचपन की यादें मन में बसी रहीं और बाद में नज्म के रूप में सामने आईं। नज्म में शब्द हैं… वह बुढि़या, जिसे बच्चे कहते थे नानी… यह भी उनके घर पर काम करने वाली बुढि़या थी जिसे वे खुद बचपन में नानी पुकारा करते थे। मुंबई में जब सुदर्शन फाकिर बड़ी तंगी में रहे, काफी संघर्ष भरा दौर था वह, उसमें उन्हें अपने बचपन के बेफिक्री के पल, वे दोस्त याद आते थे, उन्हीं के लिए उन्होंने लिखा था…‘यह दौलत भी ले लो, यह शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझ को लौटा दो, बचपन का सावन, वह कागज की कश्ती वह बारिश का पानी’। सुदर्शन जी किसी मजहब को नहीं मानते थे, लेकिन उनका लिखा और जगजीत सिंह का गाया गीत ‘जिसे अनुराधा पौडवाल ने भी गाया है- ‘हे राम’ बेहद मकबूल हुआ। फाकिर साहब का यह इकलौता भक्ति गीत है। एनसीसी का राष्ट्रीय गीत ‘हम सब भारतीय हैं’ भी उनका लिखा हुआ है। कश्मीर के समकालीन हालात पर उनकी एक गजल मौजूद है। ‘आज के दौर में ए दोस्त यह मंजर क्यों है, जख्म हर सिर पे हर एक हाथ में पत्थर क्यों है’। इसी कलम से निकली गजल का एक शेर हैः ‘जब हकीकत है कि हर जर्रे में तू रहता है, फिर कलीसा, कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यों है’।
आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख़्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है
जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है
अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इन्सान सिकंदर क्यूँ है
ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल ही नहीं अब “फ़ाकिर”
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूँ है
बेशक खुद सुदर्शन फाकिर को गुमनामी के अंधेरे पसंद थे, लेकिन उनकी शायरी आज भी रोशन है और सदा रहेगी। उनके लाखों प्रशंसक आज भी नहीं जान पाए कि इस अजीम शायर की एक भी किताब उनके जीवनकाल में प्रकाशित क्यों नहीं हुई? जबकि उन्हें दीवानगी की हदों तक खूब सुना जाता था। आखिरी दिनों में जगजीत सिंह प्रयासरत थे कि सुदर्शन जी का संग्रह प्रकाशित हो, लेकिन वह भी बेवक्त दुनिया से रुखसत गए और प्रोजेक्ट अधूरा रह गया। 2007 में सुदर्शन फाकिर बीमारी की हालत में मुंबई से सदा के लिए वापस जालंधर, अपने घर लौट आए और 18 फरवरी 2008 को सदा के लिए जिस्मानी तौर पर कूच कर गए। 2019 के उस महीने उनकी प्रतिनिधि शायरी का संग्रह आया है, जिस महीने ‘19 दिसंबर 1934’ को उनका जन्म हुआ था।
साकिर की ये पंक्तियां हर ज़माने में माकूल रहेगी –
दुनिया से वफ़ा करके सिला ढूँढ रहे हैं
हम लोग भी नदाँ हैं ये क्या ढूँढ रहे हैं
कुछ देर ठहर जाईये बंदा-ए-इन्साफ़
हम अपने गुनाहों में ख़ता ढूँढ रहे हैं