अनिल अनूप
भारत एक लोकतांत्रिक देश है, लिहाजा उसका प्रत्येक नागरिक भी स्वतंत्र है। यह वाक्य हर रोज असंख्य बार दोहराया जाता है, संदर्भ, संगठन और व्यक्ति अलग-अलग हो सकते हैं। उस स्वतंत्र लोकतंत्र के नाते दीपिका पादुकोण कहीं भी जा सकती हैं। वह वामपंथी हो सकती हैं, राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की अपनी पसंद बयां कर सकती हैं, जैसा कि उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था और सैनिकों के शिविर में जाकर उन्हें समर्थन देते हुए, वह राष्ट्रवादी भी हो सकती हैं। किसी को किसी भी पक्ष पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन दीपिका को ध्यान रहना चाहिए कि वह राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर की अदाकारा हैं। उन्हें ‘सुपर स्टार’ भी माना जाता है, लिहाजा उन्हें सेलिब्रिटी का दर्जा भी हासिल है। दीपिका जो कुछ कहेंगी या साझा करेंगी, वह बेमानी नहीं हो सकता। उन्हें अच्छी तरह जानकारी होगी कि जेएनयू के भीतरी हालात तपे हुए हैं। माहौल में विभाजन और उत्तेजना है। हिंसा का समर्थन वे करेंगे, जो संवेदनहीन हैं और लोकतांत्रिक नहीं हैं। जेएनयू में जो वीभत्स हिंसा की गई थी, उसके निष्कर्ष अभी बेनकाब नहीं हुए हैं। दोनों विरोधी पक्ष एक-दूसरे पर आरोप चस्पां कर रहे हैं। कोई भी बिल्कुल मासूम नहीं है। ऐसे माहौल में दीपिका पादुकोण अपनी नई फिल्म ‘छपाक’ के रिलीज होने से ऐन पहले जेएनयू परिसर में पहुंचती हैं और उन मुट्ठी भर चेहरों के मंच को साझा करती हैं, जो देशद्रोह की कानूनी धाराओं में आरोपित हैं। हमें लगता है कि दीपिका भी इतनी मासूम नहीं हैं कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ की सोच रखने वालों से वाकिफ न हों। हमें इस पर घोर आपत्ति है, क्योंकि ऐसे नारों के साथ एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के परिसर में अभियान चलाना कतई लोकतांत्रिक नहीं है। यह भारत की विनम्रता और लचीलापन है कि ऐसे गिरोह हमेशा सक्रिय रहे हैं। यह पूरी तरह टाइमिंग का मामला है। मौन रह कर भी सशक्त अभिव्यक्ति की जा सकती है। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर दीपिका ने ‘छपाक’ के बारे में एक भी शब्द नहीं बोला। हमें उन पर आपत्ति है, जो सोशल मीडिया पर ‘छपाक’ को बैन करने या उसका बहिष्कार करने का नकारात्मक प्रचार कर रहे हैं। फिल्म भी एक रचनात्मक काम है, उसे देखकर ही उसका विश्लेषण करना चाहिए, लेकिन निर्देशक मेघना गुलजार ने फिल्म के जरिए तेजाब के हमले की शिकार पीडि़त लड़कियों और फिर भी उनके अदम्य साहस की जो कहानी बयां की है, कमोबेश जेएनयू के उस देश-विरोधी मंच के शोर में दब कर रह गई होगी! आपत्ति उन नारों पर है, जो 2015-16 में भी ऐसे ही मंच से लगाए गए थे। तब कन्हैया कुमार जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे। आज वह यूनिवर्सिटी के छात्र नहीं हैं, लेकिन परिसर में मौजूद थे। आजादी-आजादी के नारे इस बार भी लगाए जा रहे थे और दीपिका उनकी साक्ष्य बनीं। आज भी वे चेहरे ‘अफजल गुरू’ नामक आतंकी के लिए शर्मिन्दा होने की बात कह रहे हैं और कश्मीर की आजादी के नारे लगा रहे थे। आज भी देश की बर्बादी तक जंग चलने और आजादी छीन कर लेने की हुंकारें भर रहे थे। देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री के लिए सार्वजनिक तौर पर यूनिवर्सिटी कैंपस में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, जिन्हें हम लिख नहीं सकते थे। क्या देश की 137 करोड़ की आबादी इन मुट्ठी भर जुमलेबाजों के सामने गौण है, क्योंकि 99 फीसदी से अधिक छात्र पढ़ना चाहते हैं और शेष एक फीसदी छात्र वैचारिक तौर पर विभाजित कर दिए गए हैं। यह हमारा नहीं, कई सर्वेक्षणों का निष्कर्ष है। आपत्ति दीपिका की उन देश-विरोधियों के साथ मौन उपस्थिति पर है। शायद फिल्म का ऐसे भी प्रचार होता होगा! लिहाजा दीपिका को बयान देकर स्पष्ट करना चाहिए कि वह ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के समर्थन में हैं या सिर्फ ‘छपाक’ के परोक्ष प्रचार के लिए जेएनयू गई थीं? इस विषय पर बॉलीवुड भी बंट गया है। फिल्मी दुनिया से लाखों लोग जुड़े हैं, लेकिन उनमें से गिनती भर दीपिका के लिए तालियां बजा रहे हैं, उन्हें शाबाश दे रहे हैं। किस बात पर शाबाश…! यह असमंजस ही मूल है, जिसके कारण पूरा देश बंटा हुआ लग रहा है। हकीकत यह नहीं है।