अनिल अनूप की से
श्रम संगठनों के आह्वान पर बुधवार को हुई देशव्यापी हड़ताल का मिलाजुला असर ही नजर आया। वाम रुझान वाले और विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में इसका ज्यादा असर नजर आया। करीब दस ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर आहूत भारत बंद के दौरान कुछ छिटपुट हिंसा की खबरें भी मिली हैं। कहने को तो इस हड़ताल के मूल में श्रमिक हित से जुड़े मुद्दे शामिल रहे मगर इसमें विपक्षी राजनीति की भी छाया नजर आई, जिसका पता आंदोलन के मुद्दे में शामिल नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का जिक्र होना है। यही वजह है कि संघ से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने इसे राजनीतिक आह्वान बताते हुए हड़ताल से खुद को अलग रखा। बहरहाल, श्रमिक संगठनों ने अपनी बारह सूत्री मांगों में न्यूनतम मजदूरी 21 हजार रुपये प्रतिमाह करने, ठेका मजदूरों को नियमित कर्मचारियों के बराबर वेतन व सामाजिक सुरक्षा देने, महंगाई रोकने, सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों को निजीकरण से अलग रखने तथा श्रम कानूनों में बदलाव करने वाले विधेयक को वापस लेने की मांग की। श्रमिक संगठनों का आरोप है कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने और श्रमिकों के हितों पर कुठाराघात किया जा रहा है। श्रमिक संगठनों का आरोप है कि 44 श्रम कानूनों को चार लेबर कोड में सीमित करके सरकार श्रमिक हितों की अनदेखी कर रही है। ट्रेड यूनियन नेताओं का कहना है कि नये इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड बिल श्रमिक विरोधी हैं, जिससे कर्मचारियों की छंटनी तेज होगी और कर्मचारियों का हड़ताल पर जाना मुश्किल हो जायेगा। वहीं भारतीय मजदूर संघ के नेताओं की दलील है कि सुधारों का प्रारूप तैयार करते वक्त ट्रेड यूनियनों से बात की गई थी। वे कहते हैं कि नये कोड बिल में सिर्फ इतना बदला है कि 44 किताबों की चार किताबें बनी हैं, लिखा हुआ पहले जैसा ही है।
बहरहाल, जब देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, जिसके चलते कुछ क्षेत्रों में छंटनी भी हुई है, बेरोजगारी की दर बढ़ रही है, बाजार में मांग सुस्त है, निवेश कम हुआ है, ऐसे समय में श्रमिक असंतोष का उभरना देश के हित में नहीं कहा जा सकता। सरकार को श्रमिक संगठनों की आशंकाओं का निराकरण करना चाहिए। बशर्ते श्रम संगठनों को राजनीति का मोहरा न बनाया जा रहा हो। सरकार बेहतर संवाद से समस्या का समाधान निकाल सकती है। नि:संदेह मोदी सरकार भारी बहुमत से सत्ता में आई है, मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बदलाव की प्रक्रिया में संबंधित पक्षों को न सुना जाए। यदि ऐसा होता है तो असंतोष स्वाभाविक है। भारी बहुमत से जीतना अलग बात है, इसे हर बदलाव के लिये जनता की सहमति मानना अलग बात है। नि:संदेह सबको विश्वास में लेकर चलना लोकतांत्रिक व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है। इसमे दो राय नहीं कि देश के सामने जो आर्थिक चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं, उनके लिये मौजूदा सरकार को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती का दौर विश्वव्यापी है। अमेरिका और चीन के बीच चले व्यापार युद्ध का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी देखने में आया। ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों का प्रभाव पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर भी पड़ा है, जिसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना लाजिमी था। ईरान व अमेरिका के बीच जारी टकराव नई मुश्किलें खड़ी कर सकता है। ऐसे में सरकार को जनता व श्रमिक वर्ग की मांग पर महंगाई को कम करने के लिये रचनात्मक पहल करना जरूरी है। सरकार को तमाम तरह के गतिरोधों को टालने के लिये पहल भी करनी चाहिए। बड़े बदलावों से प्रभावित होने वाले पक्षों से संवाद स्थापित करके टकराव से बचने का प्रयास होना ही चाहिए। तभी हड़ताल और बंद की अप्रिय स्थितियों को टाला जा सकता है। खासकर महंगाई को नियंत्रित करने की दिशा में सरकार को पहल करनी चाहिए। सरकार बेरोजगारी के संकट को गंभीरता से ले, अन्यथा देश में सामाजिक असंतोष की समस्या जटिल हो सकती है।