आत्माराम त्रिपाठी
आंकडे़ रोज हमारी चिंताओं में इजाफा कर जाते हैं। कल देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या डेढ़ लाख का आंकड़ा पार कर गई और पिछले छह दिनों से लगातार छह हजार से ज्यादा नए मामले रोज सामने आ रहे हैं। हम इस महामारी के शिकार शीर्ष दस देशों में आ गए हैं। हालांकि, आईसीएमआर अब भी वायरस के सामुदायिक प्रसार की आशंका को नकार रहा है, तो यकीनन यह कुछ सुकून की बात है। पर जिस तरह से महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और दिल्ली में कोरोना संक्रमण के मामले सामने आए और अब बिहार में इसकी तीव्रता दिख रही है, उससे तो यही लगता है कि लॉकडाउन का पूरा फायदा उठाने में ये प्रदेश चूक गए। ऐसा मानने का आधार है। विदेश को छोड़िए, देश में ही केरल ने यह बताया है कि किसी महामारी से निपटने के लिए कैसी सूझबूझ, तैयारी और प्रशासनिक कौशल की जरूरत पड़ती है।
हमारे यहां कोरोना का पहला मामला केरल में ही 30 जनवरी को सामने आया था और आज वह संतोष जता सकता है कि पिछले चार महीने में उसके यहां संक्रमितों की संख्या हजार से भी नीचे रही, बल्कि इनमें भी आधे से अधिक मरीज स्वस्थ होकर अपने घर लौट चुके हैं। उसकी यह उपलब्धि तब है, जब उसके यहां जनसंख्या घनत्व कई राज्यों के मुकाबले अधिक है और विदेश में रहने वाले नागरिक भी बड़ी संख्या में वहां लौटकर आए हैं। केरल की ही तरह, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने भी लॉकडाउन की अवधि का अपेक्षाकृत बेहतर उपयोग किया है। बल्कि आज हम जिस मुकाम पर हैं, उसमें अकेले महाराष्ट्र का एक तिहाई योगदान है। शुरुआत में राज्य सरकार वहां हालात को नियंत्रित करती हुई दिखी भी थी, मगर उसके बाद कुछ जैसे उससे छूटता-सा गया। कभी अस्पतालों से बदइंतजामी झांकती मिली, तो कभी फिजिकल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाती भीड़ स्टेशनों पर उमड़ती दिखी। कुछ ऐसी ही तस्वीरें गुजरात से आईं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री तो एक वक्त इतने आश्वस्त थे कि चंद रोज के भीतर वह अपने यहां कोरोना पर पूर्ण नियंत्रण का एलान करने जा रहे थे। आज उनका प्रांत संक्रमण के मामले में नंबर दो पायदान पर है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि अब राज्य लॉकडाउन में रियायत देने को बाध्य हैं, क्योंकि उन्हें राजस्व भी चाहिए, और उन पर कारोबार जगत का भी दबाव है।
कोविड-19 से जंग की एक विश्व-व्यापी सच्चाई यही है कि जिन भी देशों-प्रदेशों ने एक स्पष्ट नीति बनाई, और उस पर सख्ती से अमल किया, वे आज बेहतर स्थिति में हैं। इसके उलट, जहां कहीं भी उपायों के स्तर पर ऊहापोह की स्थिति रही, वहां के नागरिक समाज को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। हमने बहुत पहले देश में पूर्ण लॉकडाउन लागू करके एक अच्छी रणनीति अपनाई थी और इसका फायदा भी हुआ है, मगर हम इससे अपेक्षित लाभ नहीं उठा सके। चंद घटनाओं को छोड़ दें, तो सवा अरब से भी अधिक लोगों ने सरकार के निर्देश पर पहले 21 दिनों में जिस अनुशासन का पालन किया, उसका सारा हासिल इस महामारी को सांप्रदायिक रंग देने की राजनीति और प्रवासियों के मामले में दिशाहीन कार्य-प्रणाली के कारण तिरोहित हो गया। वरना आज हम डेढ़ लाख से अधिक संक्रमण के बाद की आशंकाओं से न घिरे होते।
बहरहाल, सारी कमियों को स्वीकार करते हुए भी इस हकीकत को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि हम एक असाधारण स्थिति का सामना कर रहे हैं। दो महीने से ठप पड़ी रेलवे और हवाई सेवा को फिर से शुरू किया जाएगा तो वे अचानक अपनी पुरानी क्षमता से काम नहीं करने लग जाएंगी। इस पूरे तंत्र में किन-किन स्तरों पर किस-किस तरह की समस्याएं आ चुकी हैं इसका अहसास काम आगे बढ़ने के साथ ही हो पाएगा। और अभी तो इन्हें काम भी एक तिहाई स्टाफ के साथ ही करना पड़ रहा है। हम भूल नहीं सकते कि वायरस से हमारी लड़ाई अभी चल ही रही है, जिसमें हम अभी तक बीमारी का चढ़ान ही देख रहे हैं।
यहां से यह कितना आगे जाएगी और कब अपनी चोटी पर पहुंचेगी, यह भी हमें पता नहीं है। ऐसे में सबके लिए अच्छा यही होगा कि हम न्यूनतम उम्मीदें लेकर अधिकतम सावधानी के साथ आगे बढ़ें। अपने संसाधनों की सीमाओं के साथ-साथ यह भी याद रखें कि हमारा सरकारी तंत्र अभी बहुत ज्यादा दबाव में है। दूसरी तरफ मंत्रियों और आला अफसरों को भी जनता में ज्यादा उम्मीद जगाने से बचना चाहिए और अर्थव्यवस्था खोलने के इस शुरुआती दौर में आपस की छींटाकशी से परहेज करना चाहिए।