.शादाब ज़फ़र शादाब
नजीबाबाद में नवाब नजीबुद्दौला के बसाए नगर में प्राचीन नवाबी इमारतें एक-एक कर अपना अस्तित्व खो रही हैं। धरोहर कही जाने वाली इन इमारतों के बाहर पुरातत्व विभाग के बोर्ड तो लगे हैं, लेकिन इनकी सुध नहीं लेने से इमारतें तेजी से खंडहर में तब्दील हो रही हैं। कुछ नवाबी इमारतें भूमाफिया की भेंट चढ़ चुकी हैं।
पेशावर में 1707 में जन्मे नजीब खां ने सन 1752 में ऐतिहासिक नगरी नजीबाबाद को बसाया था। नवाब नजीबुद्दौला के नाम से मशहूर हुए नजीब खां और उनके वंशजों ने नजीबाबाद को कई कलात्मक इमारतों का तोहफा दिया। नवाबी कला अनुराग की प्रतीक इमारतों में नवाब नजीबुद्दौला का महल, पत्थरगढ़ का किला, बारहदरी, चार मीनार को जिसने भी देखा, उसने कलात्मक कारीगरी की दृष्टि से दांतों तले उंगली दबा ली। सन 1755 में निर्मित पत्थरगढ़ के किले में सुल्ताना डाकू ने पनाह ली, तो उसे लोग इसी नाम से पहचानने लगे।
नवाब नजीबुद्दौला ने किले का निर्माण 1755 में कराया था और उन्होंने ही अपने नाम पर नजीबाबाद शहर बसाया। असल में नवाब नजीबुद्दौला का असली नाम नजीब खां था। नजीबुद्दौला का खिताब उन्हें मुगलों के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार से मिला था।
बात अगर पत्थर गढ के किले के स्वरूप की जाए तो यह किला लगभग 40 एकड़ भूमि पर बना है। ये किला कितनी मजबूती धारण किए हुए है इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी दीवारों की चौड़ाई दस फुट से भी अधिक है। इन दीवारों के बीच कुएं बने हुए हैं। इन कुओं की खासियत यह थी कि इनसे किले के अंदर से दीवारों के सहारे ऐसे पानी खींचा जा सकता था कि बाहरी आदमी को पता न चल सके।
यह किला लखौरी इंटों व पत्थरों से बना है। किले के दो द्वार हैं, इन पर ऊपर और नीचे दो-दो सीढियां बनी हुई हैं। इसमें 16 फुट चौड़े व 26 फुट लम्बे कमरों की छतें बिल्कुल समतल हैं। दिलचस्प बात यह है कि इसमें कहीं पर भी लौहे के गाटर या स्तम्भ नहीं हैं। इस किले का मुख्य द्वार नजीबाबाद शहर की ओर है। कहा जाता है कि इस में बड़े-बड़े दो दरवाजे लगे हुए थे जो बाद मै उतरवा कर हल्दौर रियासत (राजपूतों की) में लगा दिए गए थे, जहां पर ये आज भी मौजूद हैं। इस के मुख्य द्वार की ऊंचाई लगभग 60 फुट है। इसके ऊपर कमल के फूल पर चार छोटी अष्ट भुजाकार बुर्जियां भी बनी हुई हैं। इन बुर्जियों पर लोहा लगा था। किले में सुरक्षा की दृष्टि से चारों ओर बुर्ज भी बने हुए थे, जो अब टूट गए हैं। किले के चारों ओर गहरी खाई भी खुदी हुई थीं, जो अब भर गई हैं। किले के बाहर सुरक्षा चौकियां बनी हुई थीं, जो अब खंडहर हैं। बताया जाता है कि इस किले के अंदर से दो सुरंगें भी निकाली गई थीं, जो कहीं दूर जंगल में जाकर निकलती थीं। इस किले के अंदर एक सदाबहार तालाब भी है। इस तालाब का पानी आज तक नहीं सूखा है। इसकी गहराई के विषय में अनेक मत हैं। कुछ लोग तो इसे पाताल तक बताते हैं।
वही इन्ही नवाब नजीबुद्दौला के नवासे नवाब जहांगीर खान की याद में उनकी बेगम ने नजीबाबाद के करीब मौअज़्ज़मपुर तुलसी के करीब मेहंदी बाग स्थित चार मीनार नाम से शानदार मजार बनवाया नवाब जहांगीर खान की शादी किरतपुर के मुहल्ला कोटरा में हुई थी। शादी के दो साल बाद वह अपनी बेगम को लेने कोटरा गए हुए थे। लौटते समय जश्न की आतिशबाजी के दौरान छोड़ा गया गोला गांव जीवनसराय के पास आकर नवाब जहांगीर खान को लगा और उनकी मौत हो गई। उस हादसे से उनकी बेगम को बहुत धक्का लगा।उन्होंने नवाब की याद में नजीबाबाद के पास मोजममपुर तुलसी में चारमीनार नाम का शानदार मकबरा बनवाया।इस मकबरे के चारों ओर चार मीनारें हैं। एक मीनार की गोलाई 15 फुट के आसपास है। प्रत्येक मीनार तीन खंडों में बनी है। दो मीनारों में ऊपर जाने के लिए 26-26 पैड़ी बनी हुई है। इनसे बच्चे और युवा आज भी मीनार पर चढ़ते उतरते हैं। लखौरी ईंटों से बनी इन मीनारों की एक दूसरे से दूरी 50 फुट के आसपास है। चारों मीनारों के बीच में बना भव्य गुंबद कभी का ढह गया। बताया जाता है कि इसी गुंबद में नवाब जहांगीर खान की कब्र है। हॉल में प्र्रवेश के लिए मीनारों के बीच में महराबनुमा दरवाजे बने हैं। मीनारें भी अब धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो रही हैं। मीनारों के नीचे के भाग की हालत बहत ही खराब है। उनकी ईंट लगातार निकलती जा रही हैं। नजीबाबाद और बिजनौर जनपद के इतिहास के जानकार बेगम द्वारा बनवाए गए इस चारमीनार ताजमहल के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन वे यह नहीं बता पाते कि बेगम का नाम क्या था और वह कब तक जिंदा रहीं। यह भी कोई नहीं बता पाता कि इसके निर्माण पर कितनी लागत आई।
सन 1857 के विद्रोह में नवाब नज़ीबुद्दौला के उत्तराधिकारी नवाब दुंदू खाँ ने अंग्रेजों के विरुद्ध बग़ावत की थी जिसके कारण उसकी रियासत ज़ब्त कर ली गई और उसका एक भाग रामपुर रियासत को दे दिया गया।
सन् 1858 के शुरू होते ही नजीबाबाद के नवाब नजीबुदैला के पड़पौते नवाब महमूद अली खां की सेना ने वर्तमान में जिलाधिकारी निवास पर अपने शिविर लगा लिए थे आठ जून की रात्रि मे कलेक्टर अलेक्जेंडर शेक्सपियर ने नवाब महमूद अली खां को बुलाकर लिखित रूप से बिजनौर उनके हवाले कर दिया था उस मे यह शर्त रखी गयी थी की नवाब महमूद अग्रेजो को सकुशल जनपद से बाहर तक पहुँचाएगे तब अंग्रेज परिवारों सहित जान बचाकर जनपद बिजनौर के बालावाली ले रास्ते रुडकी चले गये थे
तीन माह बाद रुड़की में अंग्रेजों से लड़ते हुए रोहिल्ला नवाब महमूद अली खांन की फौज की जबर्दस्त हार हुई उस दिन सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिमों को तोपों से बांध कर शहीद कर दिया गया ब्रटिश सेना ने नजीबाबाद शहर में खूब तांडव मचाया था नवाब नजीबुद्दोला के परिजनों को एक-एक करके मार डाला गया जो बचे थे वह बेलगाडी से रायपुर सादात के रास्ते रामपुर जा रहे थे उन्हे कोटकादर के निकट मार डाला गया उस समय पत्थरगढ़ के किले पर भीषण गोलाबारी व तोडफोड ब्रिटिश सेना ने कि थी
वर्ष 2014 मे उत्तराखंड के हल्द्वानी में पाए गए थे मानव कंकाल लोग इन्हें 1857 में अंग्रेज़ों द्वारा मारे गए रोहिला पठानो का बताते हैं लोगों का यह भी कहना है कि ये कंकाल नजीबाबाद के रोहिल्ला पठानो के हो सकते हैं जो 1857 में अंग्रेज़ों से लड़े थे दूसरी तरफ़ लोगों का यह भी कहना था कि ये कंकाल उन लोगों के हो सकते हैं जो महामारी में मरे हों कुछ साफ तसवीर सामने नही आसकी
सन् 1857 भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है इसने न सिर्फ भारतीय राजनीति और शासन की दिशा बदली बल्कि आने वाले समय में सामाजिक सम्बंधों और समुदायों के विकास पर जबरदस्त असर डाला यह असर आज भी महसूस किया जा सकता है
1857 को भारत की आजादी की पहली जंग कहा जाता है अगर ऐसा है तो क्या कारण है कि जिन परिवारों ने अंग्रेजों का समर्थन किया वह आजादी के बाद समृद्ध होते चले गए जबकि अंग्रेजों से लोहा लेने वाले योद्धाओं को मार दिया गया या उन के वंशज आज गुरबत में जी रहे हैं?
14 अक्तूबर 1770 को नवाब नजीबुद्दौला का इंतकाल हुआ।
नवाब नजीबुद्दौला के मकबरे में उनके अवशेष दफन हुए। यहीं पर उनके खानदान से जुड़े लोगों की कब्र भी बनी। ये वो ऐतिहासिक धरोहरें हैं, जो आज अपना अस्तित्व बरकरार रखने में सरकारी उपेक्षा की शिकार हैं।
नवाब खानदान की इमारतों में पठानपुरा-जाब्तागंज क्षेत्र में स्थित बारहदरी नवाबी इमारत पूरी तरह गुमनामी में खो चुकी है। बारह दरों की यह इमारत लोगों के लिए कभी कौतुहल का विषय हो चुकी थी, जिसे भूमाफिया वर्षों पूर्व पूरी तरह निगल चुके हैं। इसी क्षेत्र में ऐतिहासिक धरोहर के रूप में जीर्णक्षीण चार मीनार है, जिसका गुंबद दशकों पूर्व धराशाही हो चुका है। नवाबों का महलसराय क्षेत्र भी इतिहास बन चुका है। यहां पर कुछ बाकी है, तो वह है नगरपालिका कार्यालय के सामने स्थित ऐतिहासिक दरवाजा, जहां पर नवाबों का दरबार चला करता था। बताया जाता है कि यहां से एक सुरंग महावतपुर क्षेत्र स्थित पत्थरगढ़ के किले को जोड़ती थी। सुरंग की स्थिति भी गुमनामियों में खोई हुई है।