अनिल अनूप
ऐसे वक्त में जब दिल्ली विधानसभा के हालिया विधानसभा चुनाव में साठ फीसदी दागी उम्मीदवार चुनकर आए हैं, देश की आकांक्षाओं के अनुरूप सुप्रीम कोर्ट की चिंता कारगर निर्देशों के रूप में सामने आयी है। सुप्रीम कोर्ट की चिंता तार्किक है क्योंकि 2004 में लोकसभा में जहां 24 फीसदी सांसद दागी थे वहीं वर्ष 2019 के चुनाव में उनकी संख्या लगभग दोगुनी यानी 43 फीसदी हो गई है। लगातार विकट होती चुनौती के बीच सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को चुनने का कारण और उनसे संबंधित विवरण को राजनीतिक पार्टियों की वेबसाइट पर डालने के सख्त निर्देश दिये हैं। नि:संदेह स्थिति उम्मीद से कहीं ज्यादा विकट है। जब तक राजनीतिक दल ईमानदारी से इस रोग से मुक्त होने का प्रयास नहीं करेंगे, तब तक भारतीय लोकतंत्र को दागियों का घुन खोखला करता रहेगा। ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट पहली बार लाइलाज होते रोग के बाबत निर्देश दे रहा हो। मगर राजनीतिक दलों में वह इच्छाशक्ति ही नजर नहीं आई जो समस्या की जड़ों पर प्रहार कर सके। चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक दलों को सूचना माध्यमों के जरिये ऐसे दागियों के बाबत जानकारी सार्वजनिक करने के निर्देश दिये थे। मगर पिछले लोकसभा चुनाव में भी इस पर ईमानदारी से अमल नहीं हुआ। जिसके बाबत भाजपा नेता व वकील अश्वनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। दरअसल, वर्ष 2013 में भी आपराधिक मामलों में दोषी सांसदों व विधायकों को प्राप्त विधायी संरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने समाप्त कर दिया था। साथ ही कोर्ट ने फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई एक साल में करने के निर्देश दिये थे। वर्ष 2018 में पांच जजों की संविधान पीठ ने एकमत से फैसला दिया था कि सारे उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से पहले अपने आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी देनी होगी। उसे सूचना माध्यमों में प्रकाशित व प्रसारित करना होगा। लेकिन लोकसभा व विधानसभा चुनाव में आदेश की पालना नहीं हुई।
दरअसल, राजनीतिक दलों के आंख मूंदने पर ही सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को ये निर्देश दिया है कि वे दागी उम्मीदवार के चयन की वजह बताएं, उसके चयन का कारण चुनाव जीतने के सामर्थ्य नहीं, उसकी योग्यता होनी चाहिए। विडंबना है कि स्वतंत्र व संवैधानिक संस्था होने के बावजूद चुनाव आयोग सख्ती दिखाने में सफल नहीं रहा है। इतना ही नहीं, शीर्ष अदालत ने इस लाइलाज रोग को खत्म करने के लिये सरकार से भी कहा था कि विधायिका से दागियों को दूर रखने के लिये संसद में कानून बनाया जाये। नि:संदेह सुप्रीम कोर्ट की सार्थक पहल के बावजूद पहला दायित्व राजनीतिक दलों का था कि वे आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों से दूरी बनाकर रखते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आज 33 फीसदी सांसदों व विधायकों पर मुकदमें दर्ज हैं और कई गंभीर प्रवृत्ति के हैं। निश्चय ही यह लोकतंत्र के लिये शर्मनाक स्थिति है। ऐसे में क्या दागी जनप्रतिनिधि कानून के राज का पालन करेंगे? क्या ये समाज को दिशा दे पायेंगे? क्या पुलिस प्रशासन इनके अधीन ईमानदारी व पारदर्शिता से काम कर पायेगा? सही मायनो में दागी जनप्रतिनिधियों के ये दाग पूरी लोकतांत्रिक मशीनरी को ही भ्रष्ट करते हैं। यहां कोर्ट की टिप्पणी जनता को भी आईना दिखाती है कि निजी व सार्वजनिक जीवन में भ्रष्ट नेताओं को वह क्यों वोट देती है? क्यों जनता क्षेत्रवाद, जातिवाद व आर्थिक प्रलोभनों के वशीभूत होकर दागियों को संसद व विधानसभाओं में भेज देती है? क्यों उज्ज्वल चरित्र के लोग इन संस्थाओं में नहीं पहुंचते? नि:संदेह भारतीय राजनीति में पराभव ऐसे ही राजनेताओं की देन है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद 48 घंटे में दागियों के चयन की वजह की सूचना पब्लिक डोमेन में प्रकाशित-प्रसािरत हो सकेगी। नामांकन के 24 घंटे बाद रिपोर्ट दाखिल न होने पर अवमानना मानी जायेगी। जिसके लिये कोर्ट ने चुनाव आयोग को अधिकृत किया है। नि:संदेह राजनीति बचाव के लिये पिछले दरवाजे से कोई रास्ता निकालेगी, मगर फिलहाल कोर्ट की पहल सुधारों की दिशा में सार्थक कदम है।