अनिल अनूप
राजनीति का अपराधीकरण पुराना विषय और मुद्दा भी है। न जाने कितनी चिंताएं जताई जा चुकी हैं और विभिन्न स्तर पर सरोकार भी व्यक्त किए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी और दिशा-निर्देशों के कई मायने हैं। सवाल अपनी-अपनी दहलीज लांघने का भी है। यदि न्यायपालिका ऐसे दिशा-निर्देश जारी करेगी, तो विधायिका और कार्यपालिका उसे दखल करार दे सकती हैं, लेकिन आपराधिक होते सदनों का क्या होगा? कभी चार में से एक जन-प्रतिनिधि आरोपी या दागी होता था, लेकिन 2009 से 2014 के बीच यह औसत तीन में से एक सांसद पर आई और आज 2019 के चुनाव के बाद औसतन हर दूसरा सांसद और संभवतः विधायक भी आपराधिक तौर पर आरोपी है। उसके खिलाफ बलात्कार, दुष्कर्म, हत्या या हत्या करने के प्रयास, अपहरण आदि जघन्य अपराधों की कानूनी धाराओं के तहत केस दर्ज हैं या मामले अदालतों के विचाराधीन हैं। अकेली लोकसभा में ही 233 सांसद आरोपी या कथित अपराधी हैं। अकेली सत्तारूढ़ भाजपा के ही 116 सांसद ऐसे हैं। सर्वोच्च अदालत ने इस स्थिति पर चिंता जताई है, बल्कि कुछ कड़े दिशा-निर्देश भी दिए हैं। यदि ये निर्देश सीधा राजनीतिक दलों को दिए जाते, तो वे असाधारण होते, लेकिन उन्हें संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत लागू करने लायक बनाना समस्यापरक होता, क्योंकि उससे चुनाव की व्यवस्था और निर्वाचित सदस्यों की स्वायत्तता की अनदेखी की जाती। अपनी-अपनी संवैधानिक सीमाओं के सवाल तब भी उठाए जाते। अब भी सवाल किया जा रहा है कि क्या मौजूदा दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा या स्वायत्तता की आड़ में बहस को आगे बढ़ाया जाएगा? शीर्ष अदालत ने सबसे गंभीर और महत्त्वपूर्ण निर्देश ये दिए हैं कि आपराधिक छवि और रिकॉर्ड वाले उम्मीदवार की तुलना में साफ छवि वाले नेता को टिकट क्यों नहीं दी जाती? शीर्ष अदालत ने यह भी साफ कहा है कि टिकट का आधार जीत की संभावना ही नहीं हो सकता। नामांकन के 48 घंटे के भीतर आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक किया जाए। जुर्म की प्रकृति और केस का मौजूदा स्टेटस भी बताना होगा। नेता का आपराधिक रिकॉर्ड पार्टी की वेबसाइट, सोशल मीडिया अकाउंट और 3 समाचार पत्रों में प्रकाशित कराना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी दी है कि यदि नए निर्देश नहीं माने गए, तो सियासी दल के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई होगी। इससे पहले 25 सितंबर, 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आदेश दिया था कि दागी उम्मीदवार नामांकन-पत्र में अपने खिलाफ लंबित मुकदमों की सूचना बोल्ड अक्षरों में दे। साथ में वे दिशा-निर्देश भी थे, जिन्हें अब दोहराया गया है। करीब 17 महीने के भीतर शीर्ष अदालत को ऐसा करना पड़ा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में 1440 आपराधिक पृष्ठभूमि और छवि वाले प्रत्याशी थे। उनमें से 530 ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने खिलाफ दर्ज मामलों के विज्ञापन ही नहीं छपवाए थे। ऐसे 16 उम्मीदवार चुनाव के बाद सांसद भी बन गए। इनमें से 8 सांसद भाजपा के हैं। चुनाव आयोग इस संदर्भ में कोई कार्रवाई नहीं कर पाया क्योंकि ऐसे अधिकार उसे हासिल नहीं हैं। अधिकार संसद ही दे सकती है और ऐसा प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। ऐसे मामलों में दागी सांसद भी एक संवैधानिक मतदाता होता है। तो फिर आयोग को ऐसे अधिकार ही क्यों दिए जाएं? सर्वोच्च अदालत सिर्फ दिशा-निर्देश दे सकती है या नतीजतन अवमानना की कार्रवाई कर सकती है। इससे भारत जैसे विराट और विविध राष्ट्र में सदनों का अपराधीकरण कैसे कम होगा या अंततः समाप्त होगा? सर्वोच्च अदालत बार-बार कहती रही है कि अपराधियों को चुनाव से रोकने के लिए कानून बनाया जाए। लोकतंत्र की नींव खोखली हो रही है। अपराधी एक नेता के रूप में लाइलाज बीमारी है। सरकारें शीर्ष अदालत की ऐसी चिंताओं और सरोकारों पर गंभीरता से विमर्श क्यों नहीं करती रही हैं? मौजूदा लोकसभा में भी 39 फीसदी सांसद दागी और कथित अपराधी हैं। लिहाजा इस संदर्भ में तमाम सवालों और आशंकित आपत्तियों को एक तरफ रखा जाना चाहिए, क्योंकि जिस देश के सांसद और विधायक भी दागदार होंगे, उस देश के सदनों की वैश्विक छवि कैसी होगी? इस सवाल पर एक आम आदमी भी सोच कर चिंतित होता है।