• दीप्ति सक्सेना
एक प्रार्थना एक ही निवेदन।
घर में रह कर बचाएं जीवन।
मृत्यु भटक रही है बाहर वहां,
पिंजरे में कैद पंछी-सा मन।।
अभी है विपदा धरा पर भारी।
कोरोना विषाणु बना संहारी।
अभी न इसकी दवा न टीका,
न शीघ्र हो पायेगी तैयारी।।
गये थे जो परिजन विदेश में।
ले आये कोरोना स्वदेश में।
चीन का पाप विश्व में फैला,
आया काल विषाणु वेश में।।
चैत्र मास में भी वर्षा बरसे।
फसलें भी नष्ट कृषक न हरषे।
सब हाथ पे हाथ रखे बैठे हैं,
त्राहिमाम स्वर निकले घर घर से।।
छींक ही नहीं स्पर्श भी घातक।
कोई बचाव अब करे कहां तक।
समय कठिन है भय विकट बना,
एकान्तवास ही उपाय रक्षक।।
बाहर करें नहीं भीड़ एकत्रित।
घर के अंदर ही प्राण सुरक्षित।
संयम बरतें दिनचर्या में अब,
टल जाने दें विपदा अनिश्चित।।
हाथ बार बार धोयें जल से।
कीटाणुनाशी स्वच्छक निर्मल से।
हाथ जोड़कर करें अभिवादन,
बचे रहें इस रोग के छल से।।
हर सामग्री का सदुपयोग करें।
संयमित समस्त उपभोग करें।
हो नित्य पठन पूजन अर्चन,
प्राणायाम व्यायाम योग करें।
स्वयं बचें औ बचायें सभी को।
सबसे अलग है रहना अभी तो
संक्रमण न धरे रूप विकराल,
सीख भली सब मानो कभी तो
सरकार का बंद है इक्कीस दिन।
स्वीकार पाबंदी स्वच्छंदता बिन
घर से ही व्यवस्था संभालें सभी,
होगी सुखद सुबह बीतेंगे दुर्दिन।।
——
कवयित्री बरेली, (उ.प्र.) में शिक्षिका हैं।