अनिल अनूप
वैश्विक संकट की इस घड़ी में संपूर्ण विश्व में लॉकडाउन चल रहा है। जैविक जंग के अदृश्य शत्रु से मां भारती को बचाने लाखों कोरोना योद्धा ढाल बनकर खड़े हैं। डाक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ, पुलिस कर्मी, सफाई कर्मी, बैंक कर्मी और जरूरी सेवाओं से जुड़े लोग अपने जीवन की परवाह किए बिना अपने-अपने स्तर पर सेवाएं दे रहे हैं ताकि हम सब अपने घरों में सुरक्षित रह सकें। कोरोना काल में जहां डाक्टर, पैरा मेडिकल स्टाफ, पुलिस कर्मी, सफाई कर्मी फ्रंट वॉरियर की तरह दिन-रात डटे हैं, वहीं मीडिया कर्मी की भूमिका को कैसे नकारा जा सकता है।
लॉकडाउन में कोरोना से जुड़ी पल-पल की खबरें बस एक क्लिक से आप तक पहुंच रही हैं, फिर वह चाहे बीबीसी न्यूज चैनल हो या फिर दिव्य हिमाचल वेब टीवी। विश्वभर की खबरों से लेकर गांव के अंतिम छोर से जुड़ी तथ्यपूर्ण खबरों की रफ्तार कभी थमी नहीं। भारत में पत्रकारिता ने शुरुआत से ही चुनौतीपूर्ण कार्य किया, चाहे वह सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का लक्ष्य रहा हो या सामाजिक चेतना का, हर दृष्टिकोण से पत्रकारिता ने स्वतंत्रता संग्राम को बढ़ाने तथा जन-जागृति लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। कोरोना के दौर में रेडियो की बात करें तो वह भी जनमानस को जागरूक करने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य की अगर हम बात करें तो इंटरनेट ही दुनिया की सबसे सक्षम सूचना प्रणाली है। प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया ने समाज के हर वर्ग के पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के बीच लोकप्रियता हासिल की है।
पाश्चात्य मीडिया के प्रख्यात विद्वान मार्शल मैकलूहान ने जनसंचार की नई प्रौद्योगिकी में विकास को केंद्र में रखकर ही संपूर्ण विश्व को ग्लोबल विलेज यानी विश्व ग्राम का सार्थक नामकरण दिया है, जो आज के संदर्भ में बिलकुल सटीक बैठता है। सोशल मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया, समाज में घटित अच्छे या बुरे की खबर से हमें अपडेट करवाता रहता है, वहीं दूसरी ओर तथ्यहीन जानकारी के चलते हम भ्रमित भी हो सकते हैं। अकसर हम अपने आस-पास लोगों को मीडिया की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सुनते हैं कि मीडिया की हेडलाइन डरावनी व न्यूज चैनलों पर चलने वाली समसामयिक परिचर्चाएं तथ्यविहीन होती हैं, जिसमें समाज हित व देश हित जैसी कोई बात नहीं होती, बस कोरी बहस होती है। काफी हद तक यह बात सही भी है। न्यूज चैनल्स की भरमार व भौतिकतावाद की होड़ में पीत पत्रकारिता को बढ़ावा देना, मानवीय सरोकारों का हनन ही है। परंतु यह बात हम कैसे भूल सकते हैं कि मीडिया के कारण ही समाज में सकारात्मक बदलाव भी आए हैं।
टेलीविजन पर रामायण का पुनः प्रसारण लॉकडाउन में भी लोगों के जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाया है, जो युवा पीढ़ी को जीवन के प्रति नजरिए को बदलने में कामयाब हो सकता है। मीडिया द्वारा दिखाई जाने वाली कोरोना योद्धाओं के संघर्ष की कहानी हम सभी में देशभक्ति का जज्बा भर देती है और हमें मैं और मेरा के सीमित दायरे से निकालकर मानवता की सेवा करना सिखा रही है। बच्चों का मन कोरे कागज की तरह होता है। मीडिया में आई कोरोना योद्धाओं के प्रति पेंटिंग द्वारा आभार व्यक्त करने की तस्वीरें प्रत्येक बालमन में भविष्य के सुंदर भारत की तस्वीर को उकेरने में कामयाब होती नजर आती है। युवावर्ग लॉकडाउन में अपना हुनर, अपने अनुभव सोशल मीडिया द्वारा साझा कर रहे हैं। साहित्यकार अपनी लेखनी से कोरोना महामारी के प्रति समाज को जागरूक कर रहे हैं। महिलाएं भी देशभक्ति में पीछे कहां हैं? वैसे भी नारी तो परिवार की अहम धुरी होती है। घर-परिवार की जिम्मेदारी के साथ-साथ हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर फ्रंट वॉरियर के रूप में डटी है, वहीं ग्रामीण महिलाएं भी दूरदराज के गांव में जाकर कोरोना की जंग में योद्धा की तरह अपना फर्ज निभा रही हैं।
अपने हाथों से बने मास्क बांट रही हैं। साथ ही स्वच्छता का पाठ भी पढ़ा रही हैं। मानवता की सेवा की यह सुंदर तस्वीरें हम मीडिया के माध्यम से ही लक्ष्मण रेखा के अंदर ही प्राप्त कर रहे हैं। सिर पर उम्मीद की गठड़ी लिए, छह-सात साल के बच्चे की अंगुली थामे, मानव भीड़ का हिस्सा बनी, गांव की ओर पलायन करती उस सशक्त महिला का दर्द भी मीडिया में तैरती तस्वीरों में घर बैठे साफ महसूस किया जा सकता है, जिसकी आंखों में कोरोना से पहले भूख से मरने का डर है।
भारत के बुजुर्ग भी इस जंग में कहां पीछे हैं। कुछ ने तो अपने जीवन की जमा पूंजी मानवता की सेवा में दान कर दी ताकि कोई भी भूखा न सोए। यह सब सकारात्मक सोच की खबरें हमें मीडिया द्वारा ही देखने-सुनने को मिलती हैं, जो कहीं न कहीं अवसाद से बचाती हैं और हम 132 करोड़ देशवासियों को इस लड़ाई में अपने साथ खड़ा पाते हैं। यही सकारात्मक बदलाव हमें अपने अंदर भी देखने को मिल रहा है। मानो, जैसे प्रकृति ने हमारा पूरा सिस्टम रिबूट कर दिया हो। अगर फिर भी आप को लगे कि मीडिया द्वारा आपके लिए, समाज के लिए कुछ नकारात्मक परोसा जा रहा है तो आप अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं और हां, रिमोट तो आपके हाथ में है ही। आखिर यह आजादी एक पाठक या दर्शक को ही है कि उसे क्या पढ़ना है या फिर क्या कुछ देखना है?
अंत में एक उम्मीद यह कि नैतिकता, चरित्र और मानवता का प्रश्न जो बार-बार उठता है, उसे मीडिया मानव कल्याण के लिए जरूर पोषित करेगा। मीडिया फिर चाहे वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, उसे केवल भौतिकवाद को ही बढ़ावा नहीं देना चाहिए, बल्कि आध्यात्मिक और मानवीय मूल्यों को भी सर्वोपरि समझना होगा। तभी मीडिया इस कोरोना काल के बाद भी मानवता का सच्चा पोषक बन सकता है।