केवल कृष्ण पनगोत्रा
भारत में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर निराश करता है। नीतियों और योजनाओं की कमी नहीं है। फिर खामियाँ कहां हैं? शिक्षक समुदाय समाज के हर वर्ग के निशाने पर रहता है। क्या कहीं और भी कमी है जिस पर शायद ही किसी की दृष्टि हो।
भारत में शिक्षा सुधार के प्रयास:
शिक्षा सुधार के लिए भारत में वर्षों से अनेक प्रयोग किए गए हैं। उद्देश्य शिक्षा की गुणवत्ता में बढ़ौतरी करना है ताकि समाज समुचित विकास की राह पर अग्रसर हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समय-समय पर अनेक सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियां विभिन्न प्रकार की शैक्षणिक गतिविधियों में सम्मिलित की जाती हैं।
साल 2018 के लिए जारी की गई वार्षिक स्थिति रिपोर्ट ए.एस.ई.आर (ऐनुअल स्टेटस ऑफ ऐजूकेशन रिपोर्ट) पूर्व की भांति निराश करने वाली है। 12वीं पंचवर्षीय योजना(2012-17) का मुख्य उद्देश्य प्राथमिक स्तर पर सीखने के कौशल में प्रवीणता प्राप्त करना था, मगर 2018 तक निराशा ही हाथ लगी।
योजना आयोग के एप्रोच पेपरस् में भी एएसईआर का उल्लेख होता आया है। देश के अधिकांश राज्यों में सीखने के परिणामों का मूल्यांकन शैक्षणिक व्यवस्था का एक निरंतर चलने वाला महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है। इस संबंध में प्रगति को आंकने के लिए एएसईआर जैसे साधन का उपयोग किया जा रहा है और कई कार्यक्रम चलाए जाते हैं।
राजस्थान में साल 2009 से ‘आओ पढ़ें हम’ कार्यक्रम की शुरुआत की गयी। राजस्थान प्राथमिकता शिक्षा परिषद द्वारा सर्व शिक्षा अभियान मापक माडयूल में भी एएसईआर का जिक्र किया गया है।
आठ राज्यों के 250 डी.आई.ई.टी(जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान ने एएसईआर से भागीदारी में काम किया है। 2014 की हिमाचल प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में एक प्रश्न एएसईआर की रिपोर्ट पर पूछा गया था।
कई बार शिक्षा संबंधी तरीकों को भी बदला गया है। एक अनुमान के अनुसार तीन लाख घरों के सात लाख बच्चों को इस सर्वेक्षण में लाया जा चुका है। इस तरह देखा जाए तो एएसईआर की रिपोर्ट राष्ट्रीय शिक्षा नीति का आधार भी बनी है। नीति आयोग के ड्राफ्ट ‘शिक्षा और कौशल विकास 2017-20 में एएसईआर के निष्कर्षों का हवाला दिया गया है।
नहीं आ रहे अपेक्षित परिणाम:
एक दशक से भी अधिक की योजनागत और नीतिगत कसरत के बावजूद भी शिक्षा क्षेत्र में अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिले। यह ठीक है कि माध्यमिक और उच्च स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्राथमिक स्तर पर अकादमिक यानि विद्या विषयक सुधार का सशक्त होना अनिवार्य है मगर मात्र अकादमिक क्षेत्र पर केंद्रित होना ही आवश्यक नहीं है।
मेरे सुझाव:
इसके लिए कुछ दूसरे अवयवों और कारकों पर ध्यान देना भी आवश्यक है।
मेरी दृष्टि में तीन कारकों पर ध्यान देना पड़ेगा। ये हैं :-
प्रथम- अविभावकों का शिक्षा के प्रति जागरूक होना ज़रूरी है। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में यह कारक अति महत्वपूर्ण है, जहां गरीब बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। सरकारी स्तर पर नि:संदेह शिक्षा संबंधी जागरूकता पर अनेक कार्यक्रम चलते हैं मगर सामाजिक, राजनैतिक और व्यवस्था संबंधी जानकारी के अभाव के कारण ऐसे कार्यक्रम मात्र औपचारिकता तक ही सीमित रहते हैं।
द्वितीय- पाठ्यक्रम का सरल और रुचिकर भाषा में होना चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता के लिए यह अति आवश्यक है कि पाठ्यक्रम बच्चों के सामाजिक और क्षेत्रीय वातावरण के अनुकूल हो। ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे शहरी क्षेत्रों के बच्चों की अपेक्षा इतने तीक्ष्ण बुद्धि के नहीं होते। धरातल का अनुभव तो यही दिखाता है कि ग्रामीण बच्चे अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी या स्थानीय भाषा के माध्यम से दी गई शिक्षा में ज्यादा रुचि रखते हैं।
सामाजिक शास्त्र, इतिहास, नागरिक शास्त्र और भूगोल जैसे विषय भारत में अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी-उर्दू में ज्यादा रुचिकर लगते हैं।
जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ सालों से जब सेकेंड्री कक्षाओं के लिए सामाजिक शास्त्र अंग्रेजी में अनिवार्य कर दिया गया है तब से इस विषय में गुणवत्ता और परिणामों में गिरावट दर्ज की जा रही है। इस संबंध में शिक्षकों की राय को शामिल नहीं किया गया था। नीतियां वातानुकूल कक्षों में वे लोग बनाते हैं जिनका धरातल की कड़वी सच्चाई से कोई सरोकार नहीं होता।
तृतीय- शिक्षा प्रशासन में शिक्षक संबंधी नियम और नीतियों में मानवीय परिवर्तन या सुधार होना जरूरी है। कोई दो राय नहीं कि वर्तमान व्यवस्था ही भ्रष्टाचार की जननी है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार निरोधी लाख यत्नों-प्रयत्नों के बावजूद भी भ्रष्टाचार जस का तस देश में व्याप्त है। चांदी का जूता आज भी मानवता और कर्त्तव्यनिष्ठा को चिढ़ा रहा है। कई राज्यों, उदाहरणत: जम्मू-कश्मीर, में शिक्षकों के स्थानांतरण उद्योग के रूप में पांव जमा चुके हैं। राजनैतिक और प्रशासनिक लोग बड़ी बेशर्मी से पनप रहे इस उद्योग से इन्कार करता है।
आखिर कितनी नीतियां बनेगीं और विफल होंगी! पिछले तीन दशक का यदि लेखा-जोखा किया जाए तो शिक्षा में सुधार के लिए बनी सरकारी नीतियों की विफलता का चिट्ठा खुलता नज़र आता है।
आश्चर्यजनक जमीनी सच्चाई
इस संदर्भ में 2007 में संसद के एक अधिनियम द्वारा गठित राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की समीक्षा में इस बात का उल्लेख स्पष्ट रूप से मिलता है कि शिक्षक मात्र 19 प्रतिशत समय ही स्कूलों में पढ़ाते हैं। शेष 81 प्रतिशत समय गैर शैक्षणिक गतिविधियों में नष्ट हो जाता है।यह शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 की सेक्शन 19 का सीधा उलंघन है। इसी अधिनियम की सेक्शन 27 शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्यों की अनुमति नहीं देती। एनसीपीसी की रिपोर्ट कहती है कि 2014 के आम चुनाव में देश के कुल 928237 मतदान केंद्रों में से अधिकतर स्कूल भवनों में स्थापित थे। 15 प्रतिशत सरकारी शिक्षक बूथ लेबल अधिकारी नियुक्त थे। जब सरकार द्वारा गठित आयोग ही सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों को गैर शैक्षणिक के शिक्षा पर दुष्परिणामों का उल्लेख करता है तो बात समझ से परे है कि शिक्षा की असंतुष्टजनक गुणवत्ता और गिरते परिणाम पर शिक्षक वर्ग को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाता है?
जम्मू-कश्मीर जैसे आतंक ग्रस्त राज्य में जहां बच्चे आतंक से उपजा मानसिक तनाव झेल रहे हैं, वहां सिर्फ शिक्षकों को जिम्मेदार माना जाता है। क्यों शासन-प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से बचता हुआ शिक्षकों पर बरसता है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)