अनिल अनूप
आखिरकार करीब एक दशक की अदालती जद्दोजहद के बाद महिलाओं को सेना में स्थायी कमीशन और सेना की टुकड़ियों का नेतृत्व करने वाली कमांड पोस्टिंग का अधिकार मिल गया। दरअसल, शार्ट सर्विस कमीशन के जरिये सेना के अधिकारी पदों पर नियुक्त महिलाओं ने स्थायी कमीशन दिये जाने के बाबत अदालत का दरवाजा खटखटाया था। उनके पक्ष में दिल्ली हाईकोर्ट ने वर्ष 2010 में फैसला भी दिया था। कालांतर सुप्रीम कोर्ट से भी हरी झंडी मिली थी। सरकार ने बाद में अदालत के फैसले को लागू करते हुए दस विभागों में स्थायी कमीशन तो दिया मगर 2019 के बाद शार्ट सर्विस कमीशन के जरिये अधिकारी बनने वाली महिलाओं को ही इसका लाभ मिला। इस विसंगति के खिलाफ महिला अधिकारियों ने अदालत का सहारा लिया। शीर्ष अदालत ने इस बाबत फैसला देते वक्त सरकार के विरुद्ध सख्त टिप्पणियां भी कीं। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के 2010 के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि सभी महिलाओं को स्थायी कमीशन मिले, चाहे वे कितने भी समय से कार्यरत रही हों। अदालत ने कहा कि सामाजिक धारणाओं के आधार पर महिलाओं को समान मौके न मिलना विचलित करने वाला व अस्वीकार्य है। महिलाओं के प्रति मानसिकता बदलने की जरूरत है और सेना में समानता लानी होगी। अदालत ने इसे महज लैंगिक समानता का मुद्दा ही नहीं बल्कि समान अवसरों का मुद्दा भी माना। हालांकि, अब तक सेना आर्मी एजुकेशन कोर और न्यायिक सेवाओं में ही महिलाओं को स्थायी कमीशन देती है। बाकी भर्ती शॉर्ट सर्विस कमीशन के अंतर्गत होती है, उनका अधिकतम कार्यकाल चौदह वर्ष का होता है। यद्यपि महिलाएं वायुसेना में लड़ाकू पायलट के भूमिका में दायित्व निभा रही हैं। हालांकि कोर्ट ने सीमाओं पर महिलाओं के लड़ने की कॉम्बैट भूमिका का फैसला अभी सेना और सरकार पर छोड़ रखा है। वैसे जवान के रूप में महिलाओं की भर्ती बीते साल शुरू हो चुकी है।
दरअसल, सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए दलील दी थी कि अपनी शारीरिक क्षमता की सीमाओं और घरेलू दायित्वों के वजह से उन्हें सैन्य सेवाओं की चुनौतियों तथा खतरों का मुकाबला करने में परेशानी होगी। एक मां के दायित्वों और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के चलते यह भूमिका मुश्किल होगी। सरकार की दलील थी कि उन्हें सीधी लड़ाई में नहीं उतारा जाना चाहिए। युद्ध के दौरान यदि किसी महिला को बंदी बनाया जाता है तो यह व्यक्ति, संस्था और पूरी सरकार के लिये मानसिक रूप से बेहद विकट स्थिति होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि फैसले में महिलाओं की क्षमता और उपलब्धियों पर शक किया जाता है तो यह उनकी तौहीन है। फैसला देते वक्त जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि महिलाओं के लिये कमांड पोस्ट पर रोक लगाना अतार्किक है और समानता के विरुद्ध है। वहीं सेना के कुछ सेवानिवृत्त जनरलों का मानना है कि सेना अनुशासित संगठन है और कोर्ट का फैसला शिरोधार्य है मगर सेना की कार्यपरिस्थितियों की जटिलता सेना के भीतर काम करने वाले लोग बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। बहरहाल, सेना में महिलाओं की लगातार बढ़ती भूमिका के परिप्रेक्ष्य में आये अदालती फैसले से उन महिलाओं के सपने हकीकत बनेंगे, जो सेना में विशिष्ट भूमिका निभाना चाहती हैं। दरअसल, यह माना जाता रहा है कि युद्ध में महिलाओं की भूमिका का विचार पश्चिमी देशों से आया था। द्वितीय विश्व युद्ध में पुरुष सैनिकों की कमी के बाद रूस द्वारा महिलाओं को युद्ध के मोर्चे पर भेजा गया था। हालांकि, सोवियत संघ के विभाजन के बाद अब यह भूमिका नहीं रही है। वहीं अमेरिका में इस भूमिका की इजाजत अफगानिस्तान-इराक युद्ध के बाद दी गई। ब्रिटेन ने युद्ध के मोर्चे पर महिलाओं की भूमिका को वर्ष 2016 में अनुमति दी गई।