• प्रमोद दीक्षित मलय
देश-दुनिया में शिक्षा को सामाजिक बदलाव के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में स्वीकार किया गया है। समाज रचना के मूल में शिक्षा का ही सुदृढ एवं संवेदनशील आधार होता है। किसी देश के विद्यालयों में दी जा रही शिक्षा के स्वरूप को देखकर कहा जा सकता है कि उस देश की भविष्य की पीढ़ी़ और समाज कैसा होगा। इसीलिए प्रचलित शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन हेतु समय-समय पर शैक्षिक विचारकों ने अपने अनुभव व्यक्त कर उसे दिशा देते हुए कालानुगामिनी एवं समाजोपयोगी बनाया है। हम शिक्षाविदों की इस श्रंखला में रवींद्रनाथ टैगोर, राधाकृष्णन, महात्मा गांधी, गिजुभाई बधेका, जाकिर हुसैन आदि का नाम बड़े आदर से लेते हैं। इन शैक्षिक विचारकों की मणि-माला में गिरिजाशंकर भगवानदास बधेका उपाख्य गिजुभाई, सुमेरू मनके की भांति सर्वोपरि दृष्टिगोचर होते हैं। गिजुभाई उस महनीय शिक्षा साधक का नाम है जो शिक्षा में प्रचलित दकियानूसी परंपराओं, जड़ता, उपदेशपरक एवं रटन्त शिक्षा प्रणाली से जूझता है। गिजुभाई ने अपने बाल हितैषी जमीनी प्रयोगों से भारतीय शैक्षिक व्यवस्था को एक नवीन दिशा देकर बालकेंद्रित, संवेदनशील एवं चेतनापरक बनाया है।
गिजुभाई बधेका का जन्म 15 नवंबर 1885 को चित्तल सौराष्ट्र (अब गुजरात) में हुआ था। मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके आपको धनार्जन हेतु काम करना पड़ा। इस हेतु अफ्रीका का भी प्रवास किया। लेकिन मन में पढ़ने की लगन की ज्योति जाज्वल्यमान थी और आर्थिक स्थिति ठीक होते ही भारत लौटकर वकालत की डिग्री प्राप्त कर कुछ समय वकालत का काम भी किया। पर वकालती पेशे की एकरसता एवं दांव-पेंच रास न आये, नीरस-बेजान काम में मन न लगा। इसी दरमियान अपने बच्चे के लिए एक ऐसे स्कूल की खोज शुरू की जहां बच्चा आनंद का अनुभव करते हुए बिना डर एवं भय के ज्ञानार्जन कर सके। पर मनपसंद स्कूल न मिल पाने से निराश हुए और तत्कालीन प्रचलित शिक्षण पद्धतियों का अध्ययन किया। जिसमें इटली निवासी मारिया मांटेसरी की पद्धति ने मन मोहा, क्योंकि इसमें बच्चे की स्वतंत्रता की बात प्रमुखता से कही गई थी। मांटेसरी पद्धति के अनुशीलन से अंदर का शिक्षकत्व जाग्रत हुआ और तब गिजुभाई ने स्वयं वैसा स्कूल खोलने का निश्चय किया जैसा कि वह अपने बच्चे के लिए चाहते थे। तब, 1916 में भावनगर में शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐसे मनीषी का उद्भव हुआ जिसने देश में पहली बाल हितैषी, बालकेंद्रित और आनंद प्रदान करने वाली शिक्षा की न केवल बात की बल्कि नवल प्रयोग करते हुए एक रास्ता भी बनाया। लेकिन परंपरा में चली आ रही धारा में परिवर्तन करना कभी भी सहज सम्भव नहीं रहा है। इतिहास साक्षी है, ऐसा करने वालों को पग-पग पर प्रताड़ना मिली है, वह उपेक्षा और उपहास के पात्र बने हैं, उनको आदर-सम्मान नहीं बल्कि अवहेलना मिली है। स्वाभाविक रूप से गिजुभाई बधेका के रास्ते में भी यह सारी रुकावटें, बाधाएं और समस्याएं मौजूद थीं। पर वह साधक ही क्या जो प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी साधना को सिद्ध न कर सके। अग्नि में तप कर ही स्वर्ण, कुंदन बन अपने आलोक से दुनिया को चमत्कृत कर देता है। गिजुभाई ने भी अधिकारियों, सहकर्मियों एवं अभिभावकों के व्यंग्य बाण सहकर अपने कर्म पथ पर अविचल रहते हुए लक्ष्य प्राप्त किया। वह कभी थके नहीं, बैठे नहीं, ठहरे नहीं, सदैव गतिशील रहे। वह शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त विद्रूपता, जड़ता, तोतारटन्त शिक्षा पद्धति, अध्यापकों के वर्चस्व, बच्चों के अनुभवों और स्वाभिमान की अनदेखी विरुद्ध सौम्य संघर्ष करते नजर आते हैं।
गिजुभाई के सामने भारत के सैकड़ों विद्यालयों की छवि घूम रही थी जहां एक बंधे-बंधाए सांचे में हर बच्चे को ढाला जाता है। विद्यालयों में बच्चों के अपने ज्ञान निर्माण के अवसर नहीं है। वह शिक्षको को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, ‘‘जहां आदर्श पेश करना हो वहां भी उपदेश जैसी बात न हो। गलती निकालने या किसी व्यक्ति के काम की निंदा करने जैसा कुछ ना हो। बालक की गलती बताने की बजाय उसे कोई अलग प्रसंग लेकर बताना चाहिए कि किसी काम को बहुत अच्छी तरह से कैसे किया जा सकता है। इससे बालक अपने आप शक्ति प्राप्त करेगा और अपनी अपूर्णता को दूर हटा देगा।’’ गिजुभाई शिक्षण में गीत, कहानी, खेल, भ्रमण एवं नाटक को महत्वपूर्ण मानते हैं। पर कहानी चयन पर सतर्कता बरतने की सलाह देते हैं, ‘‘याद रखने की बात है कि शब्द बड़ा बलवान होता है। बालकों के दिलों पर उसकी छाप अंकित रहती है। अगर शब्द का अर्थ बालक न भी समझे तब भी शब्द उनके दिलों को छूता अवश्य है।’’ विद्यालयीय परिवेश में शिक्षकों को परस्पर बातचीत एवं व्यवहार में सार्थक एवं सौम्य शब्द प्रयोग वांछित है। वह बच्चों को गृहकार्य देने के कतई पक्षधर नही है। वह तो बस्तामुक्त विद्यालय की बात करते दिखायी देते हैं। उनका मत है, ‘‘घर से गृहकार्य करके लाना बिल्कुल बंद कर देना चाहिए। जितना कुछ बालक के लिए शाला में (लेखन, वाचन, गणित) सीखने को पड़ा है, उससे कहीं अधिक और मूल्यवान शिक्षण सामग्री बाहर पड़ी है। बालक अपने हाथ-पैर लेकर ही शाला में जाएं और जैसे गए थे वैसे ही लौट कर आएं। उनकी पाठ्यपुस्तकें आदि सब शाला में ही रहें।’’
दक्षिणामूर्ति बाल मंदिर विद्यालय में काम करते हुए गिजुभाई को समझ आया कि जिस प्रकार की शिक्षा और शिक्षकीय कार्य-व्यवहार की बात और प्रयोग वह कर रहे हैं, उसके लिए उसी प्रकार के सकारात्मक समझ एवं मन-मस्तिष्क वाले प्रयोगधर्मी शिक्षक आवश्यक हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आप ने 1925 में एक अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालय भी खोला। जहां से सैकड़ों शिक्षक गिजुभाई की शिक्षा पद्धति में प्रशिक्षित-पारंगत होकर निकले और उस प्रयोग को आगे बढ़ाया। आपने शैक्षिक प्रयोगों के प्रचार-प्रसार हेतु गुजराती में ‘शिक्षण पत्रिका’ का भी प्रकाशन प्रारंभ किया। वह केवल विद्यालयों और शिक्षकों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि अपने विचारों को संपूर्ण समाज तक पहुंचाने के लिए अभिभावकों के दो बड़े सम्मेलन भावनगर (1925 में) एवं अहमदाबाद (1928 में) आयोजित किये, जहां बड़ी संख्या में अभिभावकों एवं समाज के अन्य प्रतिनिधियों ने सहभागिता कर गिजुभाई के विचारों पर विचार विमर्श कर सहमति व्यक्त किया। बच्चों के प्रति उनके ममता भरे व्यवहार के कारण ही गांधी जी ने उन्हें मूछों वाली मां कहा तो किसी ने उन्हें बच्चों का गांधी कहकर सम्मानित किया। सही मायनों में देखा जाए तो जिस प्रकार गांधीजी ने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लडी, उसी प्रकार गिजुभाई ने बच्चों के लिए आनंदपूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु लड़ाई लड़ी। आज से 90 वर्ष पूर्व व्यक्त उनके विचार अपने समय से बहुत आगे के थे। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 तथा निशुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम-2009 में गिजुभाई के शैक्षिक विचारों का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, नई शिक्षा नीति-2020 भी गिजुभाई के विचारों से समृद्ध हुई है। देश के शिक्षक अपने अंदर मौजूद गिजुभाई को जगा कर बच्चों के साथ प्रेम, सद्भाव, ममता, समता का व्यवहार करते हुए उन्हें एक प्रकृतिप्रेमी, सक्षम, समर्थ, संवदेनशील नागरिक के रूप में विकसित कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है।