राजकुमार सिंह
केंद्र सरकार जिसे बातचीत का पांचवां चरण बता रही है, उसमें भी तीन नये कृषि कानूनों पर आंदोलित किसानों की चिंताओं का स्वीकार्य समाधान निकल पायेगा या नहीं, यह तो आज शनिवार को ही पता चलेगा, लेकिन अध्यादेश को कानून बनाने की प्रक्रिया और फिर उस पर आंदोलित किसानों के घटनाक्रम से कुछ स्वाभाविक सवाल उठते हैं तो सभी पक्षों के लिए जरूरी सबक भी हैं। केंद्र सरकार की नीयत पर शक न भी किया जाये, तो भी यह स्वाभाविक सवाल अनुत्तरित ही है कि मुख्यत: राज्यों का विषय माने जाने वाले कृषि क्षेत्र में इन सुधारों की ऐसी क्या आपातकालीन आवश्यकता आ गयी थी कि जब कोरोना से भयाक्रांत देशवासी येन केन प्रकारेण अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में लगे थे, तभी अचानक जून में अध्यादेश जारी कर दिये गये? फिर कोरोना संकटकाल में ही आहूत संसद सत्र में विधेयक पेश कर इन्हें कानून का रूप भी दे दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा अपनी जगह सही है कि संसद में व्यापक विचार-विमर्श के बाद कानून बने, लेकिन अध्यादेश जारी कर सरकार अपनी मंशा तो पहले ही जाहिर कर चुकी थी।
फिर संसद में भी विचार-विमर्श कैसा हुआ? राज्यसभा में तो हंगामे के चलते चर्चा ही नहीं हो पायी, जबकि लोकसभा में छह-सात घंटे हुई चर्चा में सांसद दलगत आधार पर बंटे नजर आये। जाहिर है, लोकसभा में सत्तापक्ष का स्पष्ट बहुमत है, इसलिए विरोध के बावजूद ये कानून बन जाना स्वाभाविक ही था? एक कृषि प्रधान देश में इतने बड़े पैमाने पर कृषि सुधार करने वाले विधेयकों को गहन विचार-विमर्श के लिए संसद की किसी समिति को भेजने की जरूरत नहीं समझी गयी। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की सदस्यता वाली जिस विशेषज्ञ समिति द्वारा इन विधेयकों पर विचार करने की बात कही जा रही है, उसमें वास्तविक किसान संगठनों का कोई प्रतिनिधि क्यों नहीं था? सवाल पूछा जा रहा है कि अब किसानों के पक्ष में बोल रहे अमरेंद्र सिंह ने उस समिति में विरोध क्यों नहीं किया? इस सवाल का सही जवाब तो अमरेंद्र सिंह खुद ही दे सकते हैं, लेकिन मौके के मुताबिक बदल जाना तो राजनीति, खासकर सत्ता का चरित्र ही है। योगेंद्र यादव की मानें तो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब ऐसे ही कृषि सुधारों की पहल हुई थी, तब चर्चा में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में खुद नरेंद्र मोदी ने एमएसपी जारी रखने के पक्ष में मत दिया था।
उदाहरण के लिए संप्रग शासनकाल में भाजपा किसानों की बेहतरी के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग जोर-शोर से करती थी। बाद में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में वायदा भी किया कि सत्ता में आने पर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेगी, लेकिन हुआ क्या? जब चुनावी वायदा पूरा करने का दबाव बढ़ा तो साफ इनकार कर दिया गया कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू कर पाना व्यावहारिक रूप से संभव ही नहीं है। इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला कि फिर ऐसा अव्यावहारिक वायदा कर किसानों से छल क्यों किया गया? एक और उदाहरण आयकर छूट सीमा का दिया जा सकता है। संप्रग शासनकाल में भाजपा की ओर से खासकर अरुण जेटली, बढ़ती महंगाई के मद्देनजर आयकर छूट सीमा पांच लाख रुपये करने के पक्ष में तर्क देते नहीं थकते थे, लेकिन अपने साढ़े छह साल के शासन में भाजपा ने उस दिशा में बढ़ने का संकेत तक नहीं दिया है। संप्रग शासन में पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस की कीमतों में मामूली वृद्धि पर सड़कों पर उतर आने वाली भाजपा के शासन में पेट्रोलियम पदार्थों के बेलगाम दाम किसी से छिपे तो नहीं हैं। दरअसल यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की विडंबना ही है कि राजनीति का अविश्वसनीय चरित्र मौके और सुविधा के अनुसार बदलता रहता है। जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के शासन का ऐसा चरित्र शायद ही किसी और वास्तविक लोकतांत्रिक देश में देखने को मिले।
खैर वापस किसान आंदोलन पर लौटते हैं। आखिर इन कृषि सुधारों से केंद्र सरकार जिन किसानों के जीवन का कायाकल्प करने का दावा कर रही है, उनसे ही चर्चा से परहेज क्यों किया गया? केंद्रीय कृषि मंत्री का दावा है कि किसानों द्वारा दिल्ली घेरने से पहले भी उनसे बातचीत के दो चरण हो चुके थे, पर अध्यादेश जारी कर देने और फिर उन्हें कानून भी बना देने के बाद चर्चा का औचित्य ही क्या रह जाता है? खासकर एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म होने की आशंका से आंदोलित पंजाब-हरियाणा के किसानों द्वारा दिल्ली घेरने पर किसी ने उन्हें सद्बुद्धि देने की प्रार्थना करते हुए याद दिलाया कि यह लाहौर या कराची नहीं है तो किसी ने उनके किसान होने पर ही संदेह जता दिया। ये और ऐसी अन्य टिप्पणियां सत्ता की अहमन्यता की ही परिचायक हैं। लोकतंत्र में ऐसी टिप्पणियों से बचा जाना चाहिए। अगर वर्ष 2014 के चुनावी वायदे पूरे न करने के बावजूद वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें और बढ़कर 300 के पार पहुंच गयीं तो यह देश की आबादी के बड़े वर्ग किसानों के समर्थन के बिना संभव नहीं था।
यह कटु सत्य है कि देश के ज्यादातर हिस्सों में किसान कभी भी भाजपा के समर्थक नहीं रहे, लेकिन पिछले दो लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपनी तमाम परंपरागत प्रतिबद्धताओं को दरकिनार कर मोदी के नाम पर जनादेश दिया है। ऐसे में तो यह खुद प्रधानमंत्री की राजनीतिक ही नहीं, नैतिक जिम्मेदारी भी बन जाती है कि तमाम प्रतिकूलताओं से जूझते हुए भी देश का पेट भरने वाले अन्नदाताओं के हितों का विशेष ख्याल रखें। कहना नहीं होगा कि अगर विवादास्पद कृषि सुधारों की पहल के वक्त ही किसानों से राय-मशविरा किया गया होता या फिर पंजाब में दो महीने तक चले आंदोलन के दौरान भी बातचीत की गंभीर पहल की गयी होती तो किसानों को दिल्ली घेरने की जरूरत ही नहीं पड़ती। दिल्ली कूच के दौरान और दिल्ली घेरने पर भी किसानों के साथ जैसा व्यवहार किया गया, वह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप तो हरगिज नहीं है। नहीं भूलना चाहिए कि तपती दुपहरी और हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में खुद हर तरह का जोखिम उठा कर देश के लिए खाद्यान्न पैदा करने वाला किसान ही देश में कानून व्यवस्था संभालने के लिए पुलिस में और सरहद की रक्षा के लिए सेना में अपने बेटों को भेजता है, न कि वे जिनके हित हर सरकार के लिए चुनाव समाप्त होते ही सर्वोपरि बन जाते हैं। वोट से बनी सरकारें नोटोन्मुखी क्यों बन जाती हैं?
इस पूरे प्रकरण से एक जरूरी सबक किसानों को भी सीखना चाहिए, और वह है अपने हितों के प्रति सदैव सजग, सक्रिय और संगठित रहना। पेशे के लिहाज से कृषि आज भी देश में किसी भी अन्य पेशे से बड़ी है। कोई दूसरा पेशा कृषि से ज्यादा लोगों के जीवनयापन का आधार नहीं है। इसके बावजूद शासन-प्रशासन की नजर में किसान की कोई अहमियत नहीं है तो इसलिए कि वह संगठित, सजग और राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं है। एक-एक राज्य में कई-कई किसान यूनियनें क्यों हैं? जब उद्देश्य किसान का ही हित है तो आपसी मतभेद भुलाकर एक यूनियन क्यों नहीं? राष्ट्रीय स्तर पर एक यूनियन नहीं बन सकती तो राज्य स्तर पर तो यह होना ही चाहिए। फिर राष्ट्रीय स्तर पर सभी मिलकर एक तालमेल कमेटी बनायें, जो समय-समय पर कृषि और किसान हित में चर्चा-परिचर्चा करे, शासन-प्रशासन पर उसके अनुरूप नीति-फैसलों के लिए दबाव बनाये। आबादी के लिहाज से दुनिया का दूसरा बड़ा देश भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी है, लेकिन कृषि प्रधान देश होने के बावजूद 73 साल में भी मात्र दो किसान पुत्र प्रधानमंत्री बन पाये : चौधरी चरण सिंह और एचडी देवगौड़ा— और वो भी चंद महीनों के लिए। क्यों? इस सवाल का जवाब खुद से मांगें तो शायद फिर अन्नदाता को याचक की मुद्रा में सत्ता से कुछ मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी।