अनिल अनूप
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) ने छात्र-शक्ति को बांट दिया है। बेशक छात्रों की वैचारिकता भी मजबूत होनी चाहिए। वे वामपंथी हो सकते हैं, तो दक्षिणपंथी सोच से भी संबद्ध हो सकते हैं, लेकिन विचारधारा हिंसात्मक नहीं होनी चाहिए। यह पूरे देश का सवाल है। जेएनयू भारत की एकमात्र यूनिवर्सिटी है, जो दुनिया के पहले 100 विश्वविद्यालयों की सूची में दर्ज है। यह हमारा गौरव है, लेकिन बीते कुछ दिनों से जेएनयू के भीतर जो दपदपा रहा था, रविवार 5 जनवरी को वह अपनी तमाम हदें भी लांघ गया। एक नकाबपोश भीड़ ने छात्रों पर लाठी, डंडे, हॉकी स्टिक और लोहे की छड़ से प्रहार किए। बीच-बचाव करने के चक्कर में कुछ प्रोफेसर भी घायल हुए। हास्टलों में तोड़फोड़ की गई। हिंसक तांडव काफी देर तक जारी रहा। छात्र अब भी दहशत में हैं। वे या तो हास्टल छोड़ गए हैं अथवा किसी रिश्तेदार/मित्र के घर में टिके हैं। तांडव के दौरान और बाद में दिल्ली पुलिस की क्या भूमिका थी? यूनिवर्सिटी के सुरक्षाकर्मी मूकदर्शक क्यों बने रहे? वे नकाबपोश कौन थे? यूनिवर्सिटी के ही छात्र थे या बाहरी भीड़ भी शामिल हुई थी? उनके हाथों में हथियार कहां से आए, किसने मुहैया कराए और यूनिवर्सिटी कैंपस के भीतर हास्टलों तक कैसे पहुंच गए? आपस में मारपीट का मुद्दा क्या था? सिर्फ इंटरनेट के तार काटने और रजिस्टे्रशन को बाधित करने पर ही इतनी हिंसा फैल सकती है? ये बेहद संवेदनशील सवाल हैं। शायद पुलिस जांच में भी इनका तार्किक जवाब न मिले! हमने छात्र-शक्ति के बंटवारे की बात कही थी, लेकिन मामला उससे कहीं अधिक पराकाष्ठा तक पहुंच गया है। बेशक जेएनयू में बीते कई सालों से वामपंथी छात्र संगठन-आइसा-का वर्चस्व रहा है, लेकिन अब संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के रूप में दक्षिणपंथी सोच ने उसे चुनौती देना शुरू किया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक चुनौती और प्रतिद्वंद्विता स्वीकार्य है, लेकिन दुर्भाग्य है कि जेएनयू में यह ‘दुश्मनी’ में परिणत हो गई है। जेएनयू हिंसा के लिए आपस में आइसा और एबीवीपी पर आरोप मढ़े जा रहे हैं, लेकिन हिंसा ने जिन 34 चेहरों को जख्मी किया था, सिर फट गए थे, टांके लगाए गए, अलग-अलग जगह फ्रेक्चर होने पर प्लास्टर चढ़ाया गया। वे सभी चेहरे भारतीय हैं और अधिकतर पढ़ने, अपना करियर बनाने और अंततः देश की प्रगति में भूमिका निभाने के लिए जेएनयू परिसर तक आए थे। करीब 40 फीसदी बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं। कोई आईएएस, कोई आईपीएस बनता है, तो कोई वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री बनकर देश का नाम रोशन करता है और परिवार के हालात को संपन्न बनाता है। यह बेहद लंबी लड़ाई है, जिसका उपकरण ‘दंगे-फसाद के हथियार’ नहीं हो सकते। सवाल है कि किन ताकतों, किन हालात ने छात्रों और भीड़ को नकाबपोश बनकर जानलेवा हिंसा को बाध्य किया? देश के संभ्रांत विश्वविद्यालय में ऐसा गुस्सा, ऐसी नफरत और ऐसी असहिष्णुता…कमोबेश यह हमारे भारत की संस्कृति नहीं है। घायल दोनों पक्ष हुए हैं, अकेली छात्र संघ की अध्यक्ष आइसी घोष की बेचारगी मत दिखाइए। इसे वाम बनाम एबीवीपी भी मत बनाइए। यह घटना अतीत हो जाएगी, लेकिन गद्दारों, नक्सलियों, माओवाद बनाम राष्ट्रवाद के नारे गूंजते रहेंगे। इन पर यूनिवर्सिटी को बलिदान नहीं किया जा सकता। यूनिवर्सिटी से नफरत भी नहीं की जा सकती। उन छात्रों पर जरा सोचिए, जो कुलपति का कॉलर पकड़ लेते हैं,उनकी कार पर हिंसक प्रहार करते हैं और डीन को कई घंटों तक बंधक बनाकर कैद में रखते हैं। कमोबेश यह हमारे शिक्षण संस्थानों की संस्कृति नहीं है। कमोबेश वामपंथी भी ऐसी सोच नहीं रखते होंगे। यदि छात्र आंदोलन हैदराबाद से गुवाहाटी तक और मुंबई, पुणे, बंगलुरू, पटना तथा चंडीगढ़ तक बेवजह ही फैल गए हैं, तो सोचना होगा कि आखिर उससे नुकसान किसका होगा?