हम टेक्नोलॉजी के मालिक है और टेक्नोलॉजी हमारी गुलाम। हम इनपर इतना अधिक आश्रित हो गए हैं कि टेक्नोलॉजी हमें कंट्रोल करने लगा है। क्या हो अगर मालिक नौकर की गुलामी करने लगे तो ? वो उस से चिपका बैठा रहे बस उसकी सुने तो ? व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। टेक्नोलॉजी से बस काम भर लो, रिश्ता मत जोड़ो। क्योंकि हम जीते जागते इंसान है रोबोट नहीं।
हम इन सब के इतना अभ्यस्त हो गए हैं कि इनके बिना हमें खालीपन लगता है। किताबें पढना ,खेलना, शौक पूरे करना इत्यादि लोग टीवी, इन्टरनेट से पहले किया करते थे। लोग अब भी करते है पर संख्या कम हो गयी है। पढना, खेलना ये सब कार्य आदमी अपनी शारीरिक शक्ति और इच्छाशक्ति जितना करता है। मोबाइल में क्या है बस उँगलियाँ घुमाते रहो, खेलते रहो दिन रात।
टेक्नोलॉजी यानि ऐसी तकनीक जिससे हमारा जीवन सरल, सुगम बनता है। वैसे तो टेक्नोलॉजी का प्रभाव सभी जगह है लेकिन शहरो में रहने वाले व्यक्ति के जीवन में टेक्नोलॉजी का अधिक असर होता है। Technology ने मनुष्य को दिमागी स्तर पर अति संवेदनशील बना दिया है लेकिन भावुकता कम हो गयी है।
टेक्नोलॉजी की वजह से शहरी जीवन घड़ी की सुइयों पर भागने लगा है। हर आदमी घड़ी के हिसाब से चलता है। टाइम में ट्रेन चलती है, टाइम से ऑफिस शुरू होता है, टाइम पर पानी आता है। Time का गुलाम है बन गया है आदमी। इस भागदौड़ ने व्यक्ति को भावनाशून्य सा बना दिया है।
गाँव में भी लोग समय के पाबंद होते है पर समय सुबह, दोपहर, शाम, रात मुख्यतः इन चार भागो में बटा होता है। गाँव की व्यवस्था पर टेक्नोलॉजी ने इतना गहरा असर नही डाला है, जितना कि शहरों में।
जिंदगी क्या है? वॉट्सऐप पर चैट करने और फेसबुक स्क्रोल करने के बाद बचने वाला समय. मजाक में कही जाने वाली यह बात आज कड़वा सच बन चुकी है. बच्चे तो बच्चे, बड़े भी सोशल मीडिया, इंटरनेट और गैजेट्स के आदी होते जा रहे हैं.
महामारी के कारण यह आदत लोगों के बीच और बढ़ी है. घरबंदी के दौरान दुनिया से जुड़े रहने के लिए फोन, टैबलेट और लैपटॉप-कंप्यूटर ही हमारा सहारा बने. घरेलू बिल भरने से लेकर बैंक ट्रांजैक्शन, क्लासरूम लेक्चर, ऑफिस मीटिंग, रिश्तेदारों से जुड़ना, सब इन्हीं के माध्यम से होने लगा है.
हालांकि, इस तरह के जरूरी काम के चलते जितना डिवाइसेज का इस्तेमाल होना चाहिए, हम उससे कहीं अधिक कर रहे हैं. इनकी लत ऐसी लगी है कि आए दिन सुनने को मिल जाता है कि फोन में व्यस्त रहने के कारण किसी की मौत हो गई. कोई बिना ध्यान दिए रेलवे ट्रैक पर चलने लगा, तो किसी ने जोखिम भरी जगहों पर सेल्फी लेने की कोशिश की.
इन सबके बीच असल खतरा यह है कि बच्चों को इनकी लत लगती जा रही है. महामारी के कारण बनी इस आदत को लेकर काउंसिलर, सायकैट्रिस्ट चिंता जता रहे हैं. आंखों और हड्डियों से जुड़ी तकलीफें तो बड़ी आसानी हो ही सकती हैं. हर वक्त स्क्रीन में चिपके रहने के लिए आसपास के लोगों से संपर्क छोड़ देना उनके लिए मनोवैज्ञानिक परेशानियां भी खड़ी कर सकता है. मनोवैज्ञानिक चिंता जताते हैं कि समाज से कट कर रहने वाले ये बच्चे जब बड़े होंगे तो उनके सोच-विचार पर इसका असर पड़ेगा.
इसी तरह बच्चे क्या देख रहे हैं, इसपर नियंत्रण रखना भी माता-पिता के लिए बड़ी चुनौती है. कुल मिलाकर, तकनीकी स्तर पर एड्वांस्ड होने के लिए उठासा कदम हमें ही गिरा सकता है. देश मे फिलहाल 56 करोड़ से अधिक इंटरनेट यूजर हैं. इस मामले में हम चीन के बाद दुनिया में सबसे आगे हैं.
इंटरनेट और मोबाइल हैंडसेट सस्ते होने से लोगों तक इनकी पहुंच तेजी से बढ़ी है. मगर इसके साथ खड़ी होती परेशानियां बड़ी हैं. इनसे बचने के लिए माता-पिता और टीचरों को बच्चों को बाहर निकलने, पेंटिंग करने, किताबें पढ़ने जैसी आदतें डलवानी होंगी. हजारों वर्षों से मनुष्य सामाजिक जीव रहे हैं. अब हम खुद के ही आविष्कार के गुलाम नहीं बन सकते.