मलंग की संज्ञा दी जाती है मगर मलंग भी सूफी-दरवेशों का एक सम्प्रदाय है जो रहस्यवादी होते हैं। लंबा-चोगा, लोहे के कड़े और कमर में जजीर, लंबे बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी और हाथ में कमंडलनुमा भिक्षापात्र जिसे कश्कोल कहते हैं, इनकी पहचान है। आमतौर पर मलंग मुसलमान होते हैं। हिन्दुस्तान आने के बाद कलंदरों-मलंगों पर नाथपंथी प्रभाव पड़ा और और चिमटा, कनछेदन, भभूत जैसे प्रतीकों को इन्होंने भी अपना लिया। वैसे मलंग उसी फकीर को कहा जाता है जो किसी सम्प्रदाय से संबद्ध न हो। जाहिर है सम्प्रदाय, परंपरा के स्तर भी जिसका कहीं जुड़ाव न हो उसे लापरवाह, बेपरवाह, निश्चिंत, मनमौजी कहा जा सकता है। यही है मस्त मलंग।
हिन्दु मुस्लिम एकता का प्रतीक मेला मकनपुर
शरीफ(कानपुर) का 22 जनवरी को शुभारम्भ होगा। उर्से मदारूल आलमीन मे हिन्दोस्तान के हर गोशे-गोशे से और हिन्दोस्तान की खानकाहो और गद्दीयो तकियो से मलंगान की कसीर तादाद उर्से मदारूल आलमीन मे हाज़िर होती है और बारगाहे मदार मे शगले धम्माल करते और हुज़ूर मदारे पाक के नक्शे कदम पर चलते हुऐ अख्लाक भाई चारा और मोहब्बत का पैग़ाम देते है । दादा मदार मे मलंगो के चार गिरोह निकलते है दिवानगान ,आशकान,खादिमान ,तालबान। इन्ही चार गिरोह मे निहंग मलंग होते आये है और इन लोगो का मरकज़ मकनपुर शरीफ है और यही हज़रात सूफी संत कहलाते है। मुख्य रूप से ताजदारे मलंगान मासूम अली बाबा ,अब्दुल रज़्ज़ाक बाबा ,रफीक बाबा ,इदरीश बाबा ,आशिक अली बाबा ,ज़ियारत अली बाबा मलंग आदि और मलंग होते है ।
हिन्दी-उर्दू में मलंग शब्द फारसी के जरिये ही दाखिल हुआ है। संस्कृत, अवेस्ता, फारसी के किसी संदर्भ में इस शब्द की ठीक ठीक व्युत्पत्ति नहीं मिलती है। इस्लाम का सूफी रूप करीब नवीं सदी में आकार लेने लगा था। चीन का ताओवादी अध्यात्म इससे सदियों पहले का है। तब तक कई बौद्धभिक्षु भारत से मध्यएशिया और चीन की ओर जा चुके थे। जाहिर है ताओवादी परंपराओं का
ज्ञान भी बरास्ता सोग्दियाना होकर ईरान की धरती तक पहुंच चुका था। इसलिए मलंग का चीनी मूल दूर की कौड़ी नहीं है। आध्यात्मिक आदान-प्रदान में विचारों के साथ-साथ शब्दावली भी सहेजी जाती है। भारतीय ध्यान के जे़न रूप में यही साबित होता है।