अनिल अनूप
यह विडंबना ही है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोट जुटाने की कवायद में जिस भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, वह पूरे देश के मिजाज को प्रभावित करती नजर आ रही है। एक केंद्रीय मंत्री के गोली मारो… के कथित नारे के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया और शाहीन बाग आंदोलन स्थल पर हुई फायरिंग को जोड़कर देखा जा रहा है। फायरिंग करने वाले न तो अपराधी थे और न इस तरह का उनका कोई रिकॉर्ड ही था। यह एक भावावेश में उठाया गया कदम ही कहा जायेगा। हमारे सत्ताधीशों को इस बात का अहसास होना चाहिए कि सार्वजनिक मंच से कही गई उनकी बात के गहरे निहितार्थ होते हैं। भले ही राजनेता राजनीतिक स्वार्थों के लिये ऐसे भड़काने वाले बयान देते हैं, लेकिन उनके समर्थकों का धैर्य ऐसे बयानों से चूकता है। उसकी परिणति दिल्ली की गोलीबारी की दो घटनाओं के रूप में देख सकते हैं। इस मामले में चुनाव आयोग की कार्रवाई को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। उसकी तरफ से ऐसा कोई सख्त फैसला सामने नहीं आया जो सारे देश में भड़काऊ बयान देने वाले नेताओं के खिलाफ नजीर बन सके। यहां सवाल पुलिस की भूमिका को लेकर भी उठ रहा है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के जुलूस तथा शाहीन बाग धरना स्थल के पास भारी संख्या में पुलिस बल होने के बावजूद अभियुक्तों ने फायरिंग कैसे की। नि:संदेह पुलिस ऐसे मामलों में राजनीतिक दबाव महसूस करती है। मगर कानून व्यवस्था बनाये रखना भी तो पुलिस का ही दायित्व है। शाहीन बाग वाली घटना के बारे में कहा जा रहा है कि गोली चलाने वाला युवक दूध का काम करता है और लंबे समय से चले आ रहे धरने से उसका कारोबार ठप हो रहा था। नि:संदेह लंबे समय से चल रहे आंदोलन से स्थानीय लोगों, कारोबारियों और राहगीरों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इस बारे में आंदोलनकारियों और सरकार को सोचना चाहिए।
राजनेताओं को भी सोचना चाहिए कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जिस कंटीली राह पर वे चल रहे हैं, उसके परिणाम पूरे देश को भुगतने पड़ सकते हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक को ही लें तो सत्ता पक्ष जहां बहुसंख्यक समाज को संतुष्ट करने की कोशिश में है, वहीं विपक्ष अल्पसंख्यकों को डराने में लगा है। इसके बारे में तमाम भ्रामक प्रचार करके लोगों को मरने-मारने के लिये उकसाया जा रहा है। नि:संदेह एक स्वस्थ समाज व लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसक प्रतिरोध की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। लेकिन उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में जिस तरह के हिंसक प्रदर्शन व आगजनी की घटनाएं हुई हैं, उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। कहीं न कहीं सरकार भी नागरिकता संशोधन कानून को बिना विमर्श के जल्दबाजी में ले आई। जिसको लेकर अल्पसंख्यकों में तमाम तरह की आशंकाएं उत्पन्न हुईं। उस पर तुर्रा ये कि सत्ता पक्ष के जिम्मेदार लोगों ने एनआरसी का राग छेड़ दिया। इसको लेकर विरोधाभासी बयान सत्तापक्ष के बड़े नेताओं की तरफ से आए, जिसने अल्पसंख्यकों में असुरक्षा बोध पैदा किया। बाकी असंतोष की आंच पर रोटी सेंकने विपक्षी दलों के नेता कूद पड़े। नि:संदेह ऐसे अविश्वास व असुरक्षा का वातावरण देश के विकास के लिये घातक है। भारतीय लोकतंत्र व समाज में इतनी विसंगतियां हैं कि विरोध के स्वरों में कई तरह के अंतर्विरोध शामिल होकर समस्या को जटिल बना देते हैं। सरकार को भी लोकतांत्रिक ढंग से हो रहे विरोधों को गंभीरता से लेना चाहिए। नेताओं की जुमलेबाजी साधारण लोगों की समझ में नहीं आती। लखनऊ में पहले हिंदू समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्या और अब हिंदू महासभा के प्रांतीय अध्यक्ष रणजीत बच्चन की हत्या के निहितार्थों को समझना कठिन नहीं है। नि:संदेह इस तरह की घटनाएं देश को अराजकता की ओर ले जा सकती हैं। सत्ताधीशों को इस तरह की संकीर्ण राजनीति के घातक परिणामों पर विचार करके ही कदम उठाने चाहिए।