– दीप्ति सक्सेना
ओढ़ के हरियाली चुनर
फूलों से भरती मांग
कोमल बेलों के गजरा गहने
तितलियों की चूड़ी पहने
मूंगे की बिंदिया लगाए
महकती मेंहदी रचाए
मनोहरी छवि से लुभाती
निखरती सुहागन धरा।
पावस में यौवन संभाले
पुनः उर उल्लास भरती
भुला देती काला अतीत
यातनाओं को दूर छिटका कर
तन मन के घावों को
सीने पे लगा सिसकती नहीं
अपनी सौम्यता श्रृंगार से
तोड़ती नाशकों का दर्प।
चेताती है ये सुहागन सदा
न छीनो सुहाग पिटारी
वरना इसके कोप से
मिट जाओगे होकर उजाड़
ऐसा श्राप पाओगे
प्रायश्चित भी न कर सकोगे
सुख की सांस न भर सकोगे
घूँट घूँट जल को तरसोगे।
जब तक सुहागन है धरा
तो है वो जननी भी
जननी का सुहाग लेने का
पाप अति प्रलयंकारी
इस कृतघ्नता का दंड
चुकता होता जीवन देकर
सर्वसुखदाता है जननी प्रेम में
और अपमान में महाविनाशी।
(सहायक अध्यापक), विद्यालय-पू0मा0वि0 कटसारी,
वि0क्षे0-आलमपुर जाफराबाद, जनपद- बरेली, उत्तर प्रदेश।