•दीप्ति सक्सेना
नहीं आ रहा समझ क्या लिखूं
कलम नहीं लिख सकती
उस वेदना उस भयानक
पीड़ा की कथा…।
धरती फटने सा महाविनाशी
एक स्त्री के लिए वो समय
किसी भी विभीषिका से
अधिक भीषण क्षण…।
उसकी अस्मिता कुचल कर
टुकड़े टुकड़े पीस कर
बेइज़्ज़ती के गंदे नाले में
मुठ्ठी भर भर कर फेंकना…।
नहीं महसूस कर सकता कोई
उस नाश के काल को
सहानुभूति का नकाब लगाए
आंसू ढुलकाने वाले भी…।
सब चाहते हैं ऐसी स्त्री की मौत
क्योंकि जिंदा तो वो उस नाले की
सड़ांध को फैलाने वाली हो जाती है
सभ्य समाज के लिए घातक…।
ज़रूरी है उस बलात्कारी का जीवन
क्योंकि किसी घर का चिराग है ना वो
उसके पैदा होने पर तो बख्शीश भी
ज़्यादा दी गयी होगी किन्नरों को…।
उसके मानवाधिकार हनन न हों
कानून में भी ताकत है बचाने की
तो फिर वकील साहब भी तो
जलील करेंगे औरत को ही कोर्ट में…।
नाबालिग है, भटक गया था
अब उस बेचारे के कैरियर का भी सवाल है…
गलतियां तो लड़के/आदमी करते ही हैं
ये लड़कियां/औरतें क्यों करने लगी…?
क्यों सजती हैं सुंदर दिखती हैं?
पढ़ने-लिखने, नौकरी की क्या जरूरत?
क्यों अकेली थी घर में या बाहर?
क्यों मना करती संबंध बनाने से?
बच्ची है तो क्या छोटे कपड़े पहनेगी?
अहसान का बदला क्यों नहीं चुकाती?
जी सारे बवाल की जड़ है औरत…
किया धरा भुगत लिया, शोर क्यों?
अब बलात्कारी को सुधरने का अवसर दो
सिलाई मशीन ले आओ जल्दी
बिना रोज़गार के
कहीं वह भूखों न मर जाए…।