• सुषमा त्रिपाठी
सुनो!
बहुत ख़ामोशी से टूट गया…
वह एक भरोसा जो तुमपर था….
बिल्कुल उसी तरह जैसे…
नदी से एक बूंद निकल जाती है….
सुनो! उस बूंद का अपना
कोई अस्तित्व तो नहीं….
धारा के बीच खो जाती है कहीं…
उत्त्सर्ग कर देती है जीवन को…..
सुनो! कभी देखा है स्वयं की अनदेखी…
कभी महसूस किया है खुद की अवहेलना.
कभी समाहित किया है स्वयं को….
शून्य के अनंत छोर के उस पार….
सुनो! स्तब्ध करने वाली उदासी …
की असीम दर्द की दीवार को थामा है कभी…
खुद से खुद को दूर कर देने की मजबूरी…
कभी गुजरे हो उन पथरीली पगडंडियों से..
सुनो! कायरता का आवरण ओढ़ ……
कर लिया पग पीछे.. देकर मजबूरी का नाम….
विश्वास से बढ़कर थी कौन सी मजबूरी?
क्षण क्षण बदलती तस्वीर बनी अधूरी…
सुनो!आज भी चावल-फरे का रंग उजला है…
आज भी वो जख्म धुंधला धुंधला है….
आज भी विश्वास पर होता है ऐतबार..
जो मर गया …. है…
आज वो था तेरा प्यार….
जो मर गया है आज दिल से…
वो है तेरा प्यार।
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शिक्षिका, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश