केवल कृष्ण पनगोत्रा
ये पेड़, ये पत्ते, ये शाखें भी परेशान हो जाएं!
अगर परिंदे भी हिन्दू और मुसलमान हो जाएं!!
यह दो पंक्तियां किसी धर्म विशेष के बजाए मानवता की प्रतिनिधि हैं और मुझे मेरे पत्रकार मित्र अनिल अनूप जी ने व्हाट्सऐप पर प्रेषित की हैं। पंक्तियों के मानवीय संदेश की महत्ता और उपयोगिता के आलोक में इन पंक्तियों को मैंने सोशल मीडिया साइट फेसबुक पर डाल दिया। लाइक और कमैंट का क्रम सतत चलता गया, जो ब्लॉग जारी करने तक थमने का नाम नहीं ले रहा था।
मात्र एक प्रतिक्रिया सबसे अलग थी। यह प्रतिक्रिया थी- ‘काश! यह बात आप तबलीगी जमात वालों को समझा पाते।’ इस टिप्पणी का तात्पर्य? उत्तर आप महानुभाव दें। वैसे मोदी सरकार में मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने तब्लीगी जमात प्रकरण के बाद खड़े हुए विवाद को लेकर कहा कि किसी एक संस्था या व्यक्ति के गुनाह को पूरे समुदाय के गुनाह के तौर पर नहीं देखा जा सकता। मेरी व्यथा से जिस प्रश्न का उदय हुआ, उसकी कष्टदायी अनुभूति से न सिर्फ मुझ पर अपितु पंक्तियों के रचयिता महोदय और रसास्वादन करने वाले सज्जनों पर दया आने लगी। क्षमा कीजिए सोचने लगा हूँ कि मूर्ख कौन है? स्वयं मैं, रचियता महोदय या फिर प्रशंसा करने वाले? मैं तो सोच रहा हूँ कि उक्त पंक्तियों के रचयिता महोदय ने समाज की किन किन अमानवीय वृत्तियों की पीड़ा से आहत होकर लिखा होगा कि-
ये पेड़, ये पत्ते, ये शाखें भी परेशान हो जाएं!
अगर परिंदे भी हिन्दू और मुसलमान हो जाएं!!
मनुष्य पर तो हिंदू-मुस्लिम का ठप्पा है ही, मानवता को रक्तरंजित करने वाले गाय, भैंस, बकरा और ऊंट के बाद न जाने किस पशु को किस जाति या धर्म की खूँटी पर बांध दें। सुना है करोना के संकट में सब्जियों के ढेरों पर भी धर्मों के झंडे लगने लगे हैं।
धर्म क्या होता है? धर्म की व्याख्या की खपाई अनंत और असीम है। फिर भी यदि अति संक्षिप्त शब्दों में कहें तो सीधी सी बात है कि विभिन्न धर्म विभिन्न प्रकार से जीवन जीने की एक शैली मात्र है। मगर धर्म के ठेकेदारों ने हमारे खाने-पीने, हमारे उठने-बैठने, दातुन-हजामत करने और पहनने-संवरने पर भी ऊंगली उठाना शुरू कर दिया है।
मनुष्य तो प्रकृति की उत्पत्ति है, ठीक वैसे जैसे प्रत्येक सजीव वस्तु। तो फिर धर्मों के नाम पर यह कैसा अतिवाद? किसको जरूरत है इस अतिवाद की? जिस संविधान ने हमें ‘अनेकता में एकता’ की माला में पिरोया है, क्या यह अतिवाद उसकी भावनाओं का पहरेदार है?
करोना के संकट में तबलीगी तो तबलीगी रहे, लेकिन मन, वाणी और कर्म से किसी तबलीगी से वे भी कम नहीं, जो मेरे साथ-साथ पता नहीं कितने लोगों को करोना से बचने के लिए यह सलाह देते फिर रहे हैं कि गुज्जर लोगों से बचो। सलाह तो खरी देते हैं, गुज्जर(एक मुसलमान समुदाय)लोगों से बचना ही चाहिए क्योंकि खानाबदोश हैं, गाय-भैसें पालते हैं, गोबर के ढेरों में रहते हैं, मैले -कुचैले हैं, साफ-सफाई का ज्यादा ध्यान नहीं रखते। मगर यह उनके मन, कर्म और सोच का तर्क नहीं है जो गुज्जरों से बचने की सलाह देते हैं, बल्कि यह उनकी मज़हबी नफरत का अतिवाद है। करोना संकट में मैं तो हर उस मनुष्य से बचूंगा जो स्वच्छता का पालन नहीं करता, फिर चाहे वो मेरा हिन्दू भाई ही क्यों न हो। यह वो अतिवाद है जो हर गली-मौहल्ले से होता हुआ घरों के बीच घुस गया है।
मत सोचिए कि मैं मुस्लिमों का पक्ष ले रहा हूँ। इस अतिवाद के भुक्तभोगी मुस्लिमों की ज्ञानेंद्रियां भी तो मृतावस्था में नहीं रही होंगी यकीनन। स्थिति और सोच की संकीर्णता आभास करा रही है कि मैं हिन्दू अपने पेट का दर्द ठीक करने के लिए मुसलमान को दवाई देने का हामी बन रहा हूँ और मेरा मुसलमान भाई अपने दर्द को ठीक करने के लिए मुझे दवाई देने की पैरवी करता है। घृणा के इस माहौल से पिंड छुड़ाने की शुरुआत कहां से करें? हिन्दू करें या मुस्लिम करें? यह बड़ा प्रश्न है।
अगर कोई हिन्दू या फिर कोई मुसलमान धर्मांधता के माहौल में अपने हिन्दू और मुस्लिम भाइयों से यह कहे कि आप धार्मिक घृणा को तिलांजलि देकर आपस में प्रेम करें तो दोनों डरते हैं कि कहीं वे धर्म के ठेकेदारों की आँखों के अंगारे बन जाएंगे। फिर सोचता हूं धर्म की यह ठेकेदारी कहां से आई?
बड़े बुजुर्ग बताते थे कि स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दू-मुस्लिम बड़े प्रेम से रहते थे। अंग्रेजों ने राजनीति में धर्म को मिलाकर देश को बांट दिया। पहले देश बंटा था, अब तो मनुष्य भी बंटने लगे हैं। धर्म के घोड़ों पर सवार होकर जनमानस को भयभीत किया जा रहा है। आखिर किस लिए? सत्ता की सुरक्षा के लिए।
वस्तुतः सत्ता की सुरक्षा के लिए हिन्दू-मुस्लिम ही जरूरी नहीं है। जरूरी है कभी बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध बहला-फुसला कर, अल्पसंख्यकों का भय दिखा कर जनता को भ्रमित करना। तो कभी अल्पसंख्यकों को बहला-फुसला कर बहुसंख्यकों का भय दिखा कर सत्ता की सुरक्षा की चिंता करना। पाकिस्तान की नीति में मुस्लिमों के विरुद्ध मुस्लिम ही घृणा फैला रहा है। वहां अहमदिया और शिया मुसलमानों के लिए विषवमन होता है। अहमदियों को मुसलमान ही नहीं समझा जाता।
यह विशुद्ध सत्य है कि जब किसी पेड़ पर रहने वाले परिंदे भी हिन्दू-मुस्लिम हो जाएंगे तो नि:संदेह पेड़ के साथ पत्ते और शाखाएँ भी परेशान तो होंगे ही। इसलिए भाई अनिल अनूप की तरह मनुष्यों की अमानवीय वृत्तियों से आहत होकर कहना पड़ रहा है कि:
जिनकी अक्ल में शामिल नहीं इन्सान!
वो तो अलापते रहेंगे हिन्दू-मुसलमान !!
भटकते रहेंगे काले गरद-ओ-गुबार में!
न जान पायेंगे राम और न भाई रहमान