अनिल अनूप
कोरोना ने जहां करोड़ों को बेरोज़गार किया, वहीं कुछ आदमियों ने इस महामारी में भी अपनी उद्यमशीलता का परिचय देते हुए मास्क बनाने के उपक्रम शुरू किए। वैसे आदमी के लिए मास्क कोई नई चीज़ नहीं। मास्क, जिसे हमारे देश में घूंघट, परदा, मुखौटा, मुखावरण, छद्म मुख, ऩकाब, बु़र्का और न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है, को हमसे बेहतर और कौन जान सकता है? सदियों से मुखौटा का खेल ही तो खेल रहे हैं। लेकिन समाज का आम आदमी चाहे कितना भी चालाक और धूर्त क्यों न हो, राजनीतिक घाघों के सामने तो घसियारा ही साबित होता है। अगर ऐसा न होता तो नीरव, माल्या, दाऊद व़गैरह देश छोड़ क्यों भागते? बेचारे मास्क तो लगाते थे लेकिन उनमें इतने छेद थे कि उनकी सूरत लोगों को सा़फ नज़र आती थी। ये भले लोग, जिनके हाथों यह सोच कर ठगे जाते रहे कि वे उन्हें ठग रहे हैं, से भी कुछ न सीख सके। हमारे एक भी राजनेता का नाम बताओ जो इनकी तरह या मुशर्ऱफ या नवाज़ शरी़फ की तरह शरा़फत से देश छोड़ कर भागा हो। लोग भले ही इन्हें भगौड़ों के नाम से पुकारते हैं, पर ये बेचारे तो शर्म के मारे देश छोड़कर भागे थे। जब शर्म खत्म हो जाएगी, वापस लौट आएंगे। लेकिन उनका क्या जो शर्म बेचकर खा चुके हों और कोरोना वायरस की तरह मौ़के और ज़रूरत के हिसाब से अपने रंग-रूप में बदलाव कर सभी को गुमराह करते हैं। ऐसे लोग कोरोना और टिड्डियों की तरह न थाली बजाने से भागते हैं और न दीया जलाने से। उन्हें भागने की ज़रूरत भी नहीं। उनके चेहरों पर परत-दर-परत ऐसे ऩकाब होते हैं, जिन्हें अब सुसंस्कृत भाषा में मास्क कहा जाने लगा है, को मौ़के और ज़रूरत के हिसाब से पहनते-बदलते रहते हैं। आजकल राजनीति में जिस मास्क का ज़्यादा इस्तेमाल हो रहा है, वह है नैतिकता का मास्क बनाम नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली। जब पहली बार इस वाक्यखंड का इस्तेमाल किया तो मौसी बुरा मान गईं। कहने लगीं, ‘‘मैं नौ सौ चूहे हजम कर हज करने जाती हूं, लेकिन नैतिकता का मास्क नहीं ओढ़ती। मुझे सचमुच दुःख होता है, उन चूहों का जिन्हें खाकर मैंने डकार भी लिए थे। लेकिन तुम्हारे राजनेता तो सड़कें, पुल, सीमेंट, सरिया, ताबूत, क़फन, बंदूकें, तोपें, जहाज़, राहत का चंदा और आजकल तो मास्क, सैनेटाइज़र, वैंटिलेटर व़गैरह खाने के बाद डकार नहीं मारते। कभी आसुओं का मास्क तो कभी देशभक्ति, मज़हब, समाज सेवा व़गैरह के मास्क।’’ मौसी का कहना ठीक भी था। आजकल नैतिकता का मास्क ़खूब बिकता है। जिन्हें देखो, पकड़े जाने के बाद उन्हें नैतिकता के प्रेत ऐसे चिमटते हैं कि बेचारे नैतिकता के आधार पर इस्ती़फा देकर ही सांस ले पाते हैं। अक्सर राजनीतिज्ञों पर सरकारी कर्मी भारी पड़ जाते हैं जो घोटालों में पकड़े जाने के बाद भी नैतिकता के आधार पर कभी इस्ती़फा नहीं देते। उन्हें पता होता है कि आज नहीं तो कल वे उसी तरह बहाल हो जाएंगे, जैसे जनता सबकुछ भूलकर राजनेताओं को दोबारा चुनाव जितवा देती है।