केवल कृष्ण पनगोत्रा
फेसबुक पर किसी पार्टी के किसी कारिंदे का पोस्ट था। लिखा था- राष्ट्र निर्माण के लिए ABC पार्टी से जुड़ें। पार्टी से जुड़ने के लिए पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक के फोटो के साथ एक फोन नम्बर भी दिया गया था।
पहले ही कमैंट में एक गंदी गाली पढ़ने को मिली। यह पहली बार नहीं है कि किसी राजनैतिक पार्टी के किसी हमदर्द ने किसी पार्टी की स्वस्थ आलोचना के बजाए शर्मनाक तंज न कसा हो या अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल न किया हो। जाहिर है कि अक्सर बड़ी पार्टियों के अक्सर छोटे करिंदे भी अभिव्यक्ति के अधिकार की शर्मनाक हद तक धज्जियां उड़ा रहे हैं। विरोधी पार्टियों के नेताओं-राजनेताओं के लिए अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल करने से परहेज़ नहीं कर रहे। अमर्यादित भाषा का यह संक्रमण छोटे कारिंदों से नहीं हुआ है बल्कि बड़े नेताओं से हुआ है। जब नेता ही अभिव्यक्ति के अधिकार की मर्यादा का पालन नहीं करेंगे तो समझना कठिन नहीं कि देश किस ओर बढ़ रहा है।नि:संदेह जब किसी पार्टी का कारिंदा किसी दूसरी पार्टी के सदस्यों द्वारा जनता को उसकी पार्टी में शामिल होने के लिए कहता है और किसी अन्यत्र पार्टी का हमदर्द गालियों पर उतर आए तो इससे कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं।
1. गाली देने वाले को किसी न किसी राजनैतिक पार्टी से मूर्खता और अतीव बदतमीजी की हद तक अंधी ‘सहानुभूति’ है, जिसे इतना भी भान नहीं कि उसका नाम देश के उन कपूतों में शामिल हो रहा है जिन्हें माँ भारती भी पैदा करके रो रही होगी।
2. यह भी स्पष्ट है कि देश में असहिष्णुता का ग्राफ शर्मिंदगी की हद तक चढ़ता जा रहा है और देश की उस बहुदलीय संवैधानिक राजनैतिक प्रणाली का जनाजा ही निकलता जा रहा है जिस पर राजनीति शास्त्र के शिक्षक विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए संतोष प्रकट करते होंगे।
3. स्पष्ट है कि देश में तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि की संवैधानिक मान्यताओं की जगह अतार्किक अंधानुसरण ले रहा है जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत हानिकारक होंगे। सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के साथ हमें राजनैतिक तौर पर सचेत रहने की अति आवश्यकता है। जिस जनतंत्र को विश्व की सर्वोत्तम राज व्यवस्था माना जाता है उसमें विरोधी दलों को शत्रु समझा जाना विनाशक प्रवृत्ति है।
यह सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश में भी राजनैतिक घृणा और शत्रुता देखी-सुनी जा रही है।
स्टीवन लेविट्स्की एवं ऐंटोनीओ जिब्लाट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डिमॉक्रेसी डाइज़’ में इसी प्रकार की चिंता व्यक्त की है कि शायद अमेरिकी जनतंत्र पहली बार गम्भीर ख़तरे से गुज़र रहा है। उनका मानना है कि यदि राजनीति में विरोधी दुश्मन दिखने लगे तो समझना चाहिए कि जनतंत्र ख़तरे में है।
भारत में भी राजनैतिक विरोधियों की स्वस्थ और तार्किक आलोचना के बजाए गाली-गलौच की बढ़ती प्रवृत्ति इसी बात का संकेत है कि भारत में भी प्रजातंत्र पतन की ओर अग्रसर है। प्रजातंत्र के मायने सिर्फ वोट डालना ही नहीं है बल्कि मर्यादित ढंग से सुनने और सुनाने से भी हैं। पिछले कुछ समय से हमारे नेता भाषा की मर्यादा भूलते जा रहे हैं। बाप, माँ, नाना, नानी आदि सबको चुनाव के मैदान में गाली-गलौच किया जा रहा है।
सवाल पैदा होता है कि ऐसा क्यों होता है? क्या ऐसा करना ज़रूरी है? जी, माफ कीजिये ‘, ऐसा करना जरूरी ही है। तभी तो पिछले कुछ वर्षों से अक्सर नेता ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते देखे जा रहे हैं, जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।
एक समय था जब नेता आवाम के आदर्श होते थे। राजनीति कैरियर न हो कर सेवा होती थी। मौजूदा दौर में अक्सर सेवा की आड़ में वर्तमान और भविष्य तक संवार लेने की स्वार्थपरक मानसिकता से राजनीति लबरेज है। गांधीजी की खादी दिखावटी हो चुकी है और शास्त्री जी के मानदंडों का कहीं नामोनिशां नहीं। अगर नेता अमर्यादित भाषा का प्रयोग करेंगे तो उनके राजनैतिक दलों से सरोकार रखने वाले आवाम की दशा कैसी होगी?नेताओं की अमर्यादित भाषा को लेकर हमारी क्या समझ होनी चाहिए? यह सवाल बड़ा अहम है।
जब नेता अमर्यादित भाषा बोलने लगें तो हमें समझ लेना चाहिए कि उनके पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं है। मुझे लगता है कि जनता को भी यह बात समझ में आ रही है कि वादे केवल जुमले हैं और शायद जनता उससे आकर्षित भी नहीं होती है। जनता को आकर्षित करने के लिए शुरू में तो बार-बालाओं और सिनेमा के दिग्गजों को मैदान में उतारा जाने लगा।
हम देख रहे हैं कि हमारी राजनीति में सभी दलों की तरफ से गालियों और अपशब्दों का दौर चल रहा है। तो ऐसी हालत में फिर से थोड़ा सोचने का समय है कि हम हम गाली कब देते हैं और क्यों देते हैं?उनका राजनीतिक और समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य क्या होता है?
हम अक्सर यही सोचने की भूल करते हैं कि गाली देने वाला पागल होता है। वह हमेशा पागल नहीं होता, लेकिन इससे अतिरिक्त एक सच यह भी है कि गाली अक्सर वही देता है, जो विचारों के मामले में गरीब होता है। गाली निकालने का एक सामाजिक परिप्रेक्ष्य यह भी है कि शब्दों से खेलनेवाला साहित्यकार या विद्वान भी हो, मगर दिल और विचारों का गरीब गाली वाले शब्दों का प्रयोग करते समय अपने विचारों और संस्कारों की गरीबी प्रकट कर रहा होता है।
अब यह देखना और सोचना हम लोगों का काम है कि राजनीति में गालियां किधर से और क्यों आ रही हैं? यह मसला आरोपों-प्रत्यारोपों का भी है लेकिन इतना जरूर है कि इस प्रवृत्ति से प्रजातंत्र का पतन हो रहा है।
लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं