आत्माराम त्रिपाठी
पूरे बुंदेलखंड में खनन का कारोबार ज़ोरों पर है और इससे जुड़े लोगों के लिए यहां की लाल मिट्टी वाली सूखी धरती सोना उगल रही है।
उत्तर प्रदेश में रेत (बालू) का अवैध खनन भले ही प्रतिबंधित हो, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि बुंदेलखंड में रोजगार के लिए तरस रहे गरीब-गुरबों के लिए यह दो वक्त की रोटी का ‘जुगाड़’ बन गया है। बालू खनन से मिल रहे रोजगार की वजह से वे अब कमाने परदेस नहीं जाते। उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में नदियों और खेतों में पड़ी बालू का अवैध खनन चरम सीमा पर है।
जहां नदियों में भारी-भरकम मशीनों से खनन किया जा रहा है, वहीं नदियों की तलहटी वाले खेतों की बालू किसान या तो समझौते में माफियाओं को बेच रहे हैं या फिर खुद ई-रिक्शा और मोटरसाइकिल से फेरी लगाने वालों को बेची जा रही है।
गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अकेले बांदा जिले में करीब आठ हजार परिवारों को बालू के अवैध खनन से रोजगार मिला हुआ है और ये परिवार अपनी दो वक्त की रोटी का ‘जुगाड़’ इसी से कर रहे हैं। इतना ही नहीं, कई जगह तो पिछले दिनों तक साग-सब्जी की तरह अब नदी के किनारे ‘बालू मंडी’ भी लगनी शुरू हो गई थु। वहां से ई-रिक्शा और मोटरसाइकिल वाले बालू खरीदकर बाजार में बेच रहे थे। इन्हीं बालू मंडियों के अगल-बगल चाय, समोसा और परचून की अस्थायी दुकानें भी थी।
नरैनी तहसील क्षेत्र के गौर-शिवपुर गांव के एक जिंदादिल युवक बताते हैं कि उनके गांव में करीब पचास युवक ऐसे हैं, जो मोटरसाइकिल से यह धंधा करते हैं। ये लोग किसानों के खेतों से 10 रुपये प्रति बोरी कीमत में बालू खरीद कर नरैनी कस्बे में उसे 35 रुपये प्रति बोरी की दर से बेचकर प्रतिदिन करीब आठ सौ रुपये कमा रहे हैं। इससे उनके परिवार का दैनिक खर्च और खाने-पीने का जुगाड़ आराम से हो जाता है।
बेमतलब जैसी हो गई है लेकिन जो बात उभर कर आ रही है कि यहां के माफियाओं के लिए गांवों के लठैत सबसे बड़े थानेदार बन चुके हैं।
यह बात थोड़ी अटपटी जरूर लग रही होगी, लेकिन यह सच है। वैध या अवैध रेत खनन में खनन माफियाओं पर पुलिस से ज्यादा गांवों के लठैत भारी पड़ रहे हैं। किसी माफिया की मजाल क्या, जो बिना टैक्स दिए एक भी बालू भरा वाहन निकाल ले जाए या किसानों के खेतों के सामने नदियों की बालू का खनन कर सके।
इसी परिप्रेक्ष्य में धरातल में नजर दौड़ाएं तो केन, बागै, रंज और यमुना नदी में 70 से अधिक स्थानों में बालू का खनन किया जा रहा है। करीब 66 अवैध खदानों में कुछ जनप्रतिनिधियों और पुलिस की संलिप्तता का भी आरोप लग रहा है।
गौर-शिवपुर गांव के पास केन नदी में रनगढ़ किले के अगल-बगल कोई वैध खदान नहीं है। पिछले साल से रिसौरा खदान का मामला उच्च न्यायालय में लंबित है, फिर भी दिन-रात ट्रैक्टरों से खनन किया जा रहा और बालू लदे वाहनों का परिवहन भी नरैनी-बांदा मुख्य सड़क से ही हो रहा है।
बांदा, हमीरपुर जैसे कुछ ज़िलों में लोग खनन की दोहरी मार सह रहे हैं। एक ओर पहाड़ काटकर पत्थर निकाले जा रहे हैं और क्रेशर प्लांट में उनसे गिट्टी बनाई जा रही है, दूसरी ओर नदियों के किनारे बालू खनन ज़ोरों पर किया जा रहा है जिससे नदियों के जलग्रहण क्षेत्र पर बुरा असर पड़ रहा है।
स्थानीय लोगों का आरोप है कि खनन उद्योग में बड़े और रसूखदार लोग शामिल हैं इसलिए पुलिस और प्रशासन भी उन पर हाथ डालने से बचता है।
खनन के लिए कुछ मानदंडों के आधार पर पट्टे दिए जाते हैं, लेकिन बताया जा रहा है कि ज़्यादातर खनन अवैध तरीके से ही हो रहा है। पूरे बुंदेलखंड को खनन से 500 करोड़ रुपए का सालाना राजस्व मिलता है।
जानकारों का कहना है कि बुंदेलखंड के जल संकट के लिए काफी हद तक खनन और वनों की कटाई भी ज़िम्मेदार है।
बांदा-चित्रकूट परिक्षेत्र के वन संरक्षक केएल मीणा बताते हैं कि जंगलों से भरे रहने वाले इस इलाक़े में मात्र 5-6 प्रतिशत वन क्षेत्र रह गया है, जबकि मानकों के अनुसार कम से कम 33 प्रतिशत होना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि स्थानीय लोगों को इसकी भयावहता का अंदाज़ा न हो, लेकिन इसके पीछे लगे लोगों की ताक़त के चलते जल्दी कोई हाथ नहीं लगाता।