मोहन द्विवेदी
इस बार दिवाली बताएगी कोरोना काल में इनसान की हैसियत और त्योहारी फितरत का यह दस्तूर, मिट्टी हो चुकी आशाओं को फिर से कैसे दीये के भीतर समेट लेता है। दिवाली जिस मोड़ पर आकर खड़ी है, वहां आर्थिक विवेचन की मंदी भी तो है। आत्मनिर्भर भारत के सपनों में फंसा धंधा चौकन्ना है, लेकिन दिवाली के माहौल में कोविड के बंधन और त्योहार पर फिदा भारतीय समाज की बंद मुट्ठी के खुलने पर भरोसा है। दिवाली हर तरह के मूड का प्रकटीकरण है, लेकिन आर्थिक गुलदस्ते के फूल झुक गए हैं। बाजार में कर्मचारियों का बोनस, सालभर की बचत और घर की साज-सज्जा का बजट कितना रूठा रहेगा, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं। ऐसे में राष्ट्र का प्रदूषण सीधे-सीधे पटाखा उद्योग से लड़ रहा है और आंशिक भुगतान में फूटती आतिशबाजी को खरा संकेत मानें या डूबते सौदे का प्रलाप करें। राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में इस बार की दिवाली कितनी मिठास घोलती है या ऑनलाइन खरीद के उभरते क्षितिज में बाजार की किस्मत छीनी जाती है, यह हिसाब होगा।
हालांकि पिछले साल यानी 2019 की दिवाली से भी उम्मीद के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था को हासिल नहीं हुआ था, लेकिन इस बार उपभोक्ता की निराश मांग के बीच बाजार की आशंकाएं बलबती हैं। दिवाली के अर्थों में आभूषणों की बिक्री पिछले साल ही पचास फीसदी तक गिरी थी, तो इस बार इस क्षेत्र में खरीद लायक सामाजिक समर्थन दिखाई नहीं दे रहा। भारतीय रिजर्व बैंक पहले ही कह चुका है कि उपभोक्ता कोविड के झटकों से बाहर निकलने में समय ले रहा है और यह मानसिक आधार पर ही तय होगा कि 26.7 प्रतिशत तक गिरी जीडीपी को देश का सबसे बड़ा त्योहार कितना संबल देता है। दिवाली के दौरान ‘वोकल फॉर लोकल’ अभियान को करिश्माई ठहराते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही उपभोक्ता को अपने इरादों के भारत से जोड़ते हैं, लेकिन यह आम नागरिक की घटती मांग के बीच कठिन जवाब है। भारतीय अर्थव्यवस्था के हिसाब से गणेश चतुर्थी से नववर्ष आगमन तक के त्योहारी वातावरण में साल की लगभग चालीस फीसदी बिक्री होती है, इस लिहाज से यह दिवाली देश की अर्थव्यवस्था के लिए कितने दीपक जलाती है, इस पर निगाहें टिकी रहेंगी। जाहिर तौर पर दिवाली की आशाओं में भारत के असंगठित क्षेत्र के हजारों अफसाने हैं।
तमाम राष्ट्रवाद के नारों, देशभक्ति के नजारों, अयोध्या में राम मंदिर की बयारों के बावजूद कोविड काल के त्योहारों में आर्थिकी ढूंढ रहे तमाम लोगों के लिए हर घर के दीये की खुशामद रहेगी। दीये जलें ताकि रुकी हुई अर्थव्यवस्था का घर-घर चूल्हा जले। इस तरह यह दिवाली केवल त्योहार के उल्लास में सराबोर परंपरा नहीं, बल्कि इसके इर्द-गिर्द आर्थिकी का नया मंचन भी हो रहा है। बाजार का रुख अगले युग के विषयों को लिख रहा है। मास्क के भीतर और कोरोना काल की मंदी से बाहर निकलते समाज के हाथों में न केवल परंपराओं को फिर से लिखने का वक्त आ गया है, बल्कि जीवन की उमंगों को बटोरने के लिए स्वयं दिवाली इस बार सारथी बनकर आ रही है। दिवाली अपने संयोग और संदर्भ में इस बार भारी मशक्कत से यह भी तय कर रही है कि व्यापार की तिजोरी में लक्ष्मी आए और साथ ही इस साहस में यह सामर्थ्य भी रहे कि कोरोना के खिलाफ जारी जंग में कोई गुस्ताखी न हो। पिछले सात महीनों की मंदी के सामने दिवाली की रोशनी, एक ऐसी सूचना भी है कि फिर से अच्छी खबर आएगी। उन तमाम परिवारों में दिवाली का इंतजार लगातार रहेगा, जहां किसी सदस्य की नौकरी जा चुकी है या वेतन की कटौती से घर का बजट डगमगा गया है।