अनिल अनूप
21 दिनों का लॉकडाउन ज्यों-ज्यों अपने अंतिम पड़ाव की तरफ बढ़ रहा है, सरकार की दुविधा भी बढ़ रही है कि वह इसे पूरी तरह समाप्त करे या और आगे बढ़ाए। अभी स्थिति यह है हर दिन के साथ कोरोना संक्रमितों की संख्या में पांच सौ या इससे ज्यादा की बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन दूसरी तरफ लॉकडाउन के कारण सारी आर्थिक गतिविधियां ठप हैं, जिससे अंदर ही अंदर एक ऐसे संकट को मजबूती मिल रही है, जो आगे चलकर विस्फोटक रूप ले सकता है। इनके अलावा तीसरा फैक्टर यह है कि खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी लॉकडाउन को कोरोना से लड़ने का पर्याप्त उपाय नहीं माना है।
लॉकडाउन के चलते उपजी आर्थिक परेशानियां, खाने-पीने के सामानों की वास्तविक या संभावित किल्लत और नौकरी जाने की आशंका जैसे कारकों को फिलहाल छोड़ भी दें तो सिर्फ अकेलापन ही हम सबको बहुत-बहुत बेचैन बना देने के लिए काफी है। कई सालों से यह कहा जा रहा था कि सोशल मीडिया के इस दौर में लगातार डिजिटल संपर्क के बावजूद हम सब अकेले होते जा रहे हैं। हमारी वर्चुअल दुनिया हमें घर-परिवार, पास-पड़ोस की वास्तविक दुनिया से काटती जा रही है। एक हद तक वह बात सच भी थी, लेकिन अगर पूरी तरह सच होती तो इस अलगाव से निपटना हमारे लिए इतना मुश्किल न होता।
मोबाइल फोन और इंटरनेट की बदौलत वह वर्चुअल दुनिया आज भी हमें उपलब्ध है लेकिन उससे हमें कोई निजी राहत भी नहीं मिल पा रही है। लॉकडाउन ने हमें व्यावहारिक दृष्टि से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक तौर पर भी वास्तविक दुनिया की अहमियत का अहसास कराया है। अकेलापन हमारे लिए कोई नई चीज नहीं। उसकी शक्लें हमारी देखी हुई हैं। चाहे वह विदेशों में सेट्ल हो चुकी संतानों वाले सीनियर सिटिजंस का अकेलापन हो या वह जो गंभीर बीमारी के बाद हॉस्पिटल के कमरे में महसूस होता है, या फिर वह जो अचानक हाथ लगी बेरोजगारी के चलते आता है। लेकिन यह जिंदा मानवीय स्मृति का सबसे अनूठा अकेलापन है, जिसमें हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से डरा हुआ महसूस कर रहा है।
मनुष्य मात्र से डरते हुए उससे दूर रहना एकदम नई चीज है और इसका असर हमारे अवचेतन पर पड़ रहा है। समस्या नई है तो इससे निपटने का अंदाज भी नया होगा और सबको अलग-अलग ढंग से इसका संधान करना होगा। परिवार साथ मिलकर ताश, लूडो या कोई और दिमागी खेल खेले। अकेले किताब पढ़ने के बजाय कुछ पढ़कर सुनाया जाए। साझा सूत्र यही कि अलगाव का इलाज और किसी भी चीज से पहले मनुष्य में ढूंढा जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस मसले पर चर्चा कर चुके हैं जिसमें तय हुआ कि जिला प्रशासन की रिपोर्ट के आधार पर लॉकडाउन हटाने का प्लान भेजा जाए। इस सप्ताह के आखिर तक सभी राज्य इस आशय वाली अपनी-अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजेंगे और उसके आधार पर केंद्र सरकार फैसला करेगी। अभी जैसा लग रहा है, पूरे देश से एक साथ लॉकडाउन खत्म नहीं किया जाएगा। सरकार की योजना है कि जिन जगहों पर कोरोना के केस ज्यादा पाए गए हैं वहां लॉकडाउन जारी रखा जाए।
संक्रमण की मात्रा के आधार पर राज्यों को चार कैटिगरी में बांटा जाएगा और उसी हिसाब से अलग-अलग राज्यों या फिर जिलों में लॉकडाउन हटाने और विभिन्न सेवाएं शुरू करने के बारे में सोचा जाएगा। इनमें ज्यादा एक्टिव कोरोना वाले इलाकों में लॉकडाउन से कोई छूट नहीं दी जाएगी लेकिन जिन राज्यों में पिछले सात दिन से कोरोना का कोई भी मामला सामने नहीं आया हो, वहां राहत मिल सकती है। गौरतलब है कि 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में तीन हफ्ते के लिए लागू लॉकडाउन की अवधि 14 अप्रैल को समाप्त हो रही है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ज्यों-ज्यों लॉकडाउन की अवधि बढ़ेगी, समाज के कमजोर वर्ग की मुश्किलें भी बढ़ती जाएंगी।
अभी यह तबका किसी तरह जीवन यापन कर रहा है लेकिन वह कब तक इस तरह बैठा रहेगा? असंगठित और छोटे स्तर के धंधे पूरी तरह चौपट हो गए हैं। निर्माण कार्यों का चक्का एकदम रुका हुआ है। छोटे-मोटे खाने-पीने की दुकानें और तमाम तरह की सर्विसेज बंद हैं। फैक्ट्रियों के बंद होने से चिकित्सकीय सामग्री भी नहीं बन पा रही है। ऐसे में रास्ता यही बचता है कि चुनिंदा दायरों मे उत्पादन कार्य किसी तरह शुरू हो ताकि हम चिकित्सा उपकरण और खाद्य सामग्री बना सकें। इससे खाली बैठे श्रमिकों को काम मिलेगा, चिकित्साकर्मियों को जरूरी उपकरण मिल सकेंगे और लोगों की जांच का काम भी तेज होगा। लेकिन लॉकडाउन में जरा भी ढील सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर समस्या पैदा कर सकती है, लिहाजा इसके लिए भी कोई रास्ता खोजना होगा। सरकार सभी पहलुओं पर सोच-विचार करके ही कोई फैसला करेगी।