Uncategorized

अन्न-जल का बेजा उपयोग

केवल कृष्ण पनगोत्रा 
ब्रितानी समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ ने 1966 में बिहार के अकाल को विश्व संकट घोषित करते हुए अमेरिका और सोवियत संघ के अंतःकरण को जगाने की कोशिश की थी. तब अकाल के कारण बिहार में भोजन का व्यापक अभाव था. 
लेकिन वर्तमान में देश के अंदर फैली भुखमरी का कारण भोजन का अभाव नहीं है  बल्कि भोजन और पानी की संस्कारहीन बर्बादी है. रोज लाखों टन भोजन को स्टेटस के नाम पर  और  जागरूकता के अभाव में लाखों लीटर पानी  बर्बाद किया जा रहा है. 
इस संस्कारहीनता को एक राष्ट्रीय त्रासदी के रूप में देखें तो अनुचित नहीं होगा. अमीर और मध्यवर्ग दिखावे की चकाचौंध में अन्न-भोजन बर्बाद कर रहा है और भूखे लोग पेट की आग बुझाने के लिए उस भोजन को लूट रहे हैं. एक ओर करोड़ों लोग दाने-दाने को तरस रहे हैं तो दूसरी ओर लाखों टन भोजन बर्बाद किया जा रहा है. 
आज भोजन और पानी की बर्बादी किसी से छिपी नहीं है. शहरों के होटलों से निकल कर अन्न-जल की बर्बादी के संवेदनहीन दृश्य अब गांवों में भी देखे जा सकते हैं. 
ज्यादा से ज्यादा खाने के आइटम परोसने का गैर जरूरी प्रदर्शन पेट की सीमा से बाहर हो रहा है. हर आइटम खा लेने की लालसा में जब मुंह भी पदार्थ को स्वीकार  नहीं करता तो जूठन के रूप में फेंक दिया जाता है. जूठन छोड़ने को पाप मानने वाली संस्कृति का चीरहरण भी तो वही सभ्य समाज के लोग ही कर रहे हैं जिनके लच्छेदार भाषण संस्कृति के स्वार्थी इस्तेमाल से लबरेज़ रहते हैं. 
सामाजिक संवेदनहीनता दृश्य इतना विडंबनापूर्ण है कि एक पड़ोसी समृद्धि की दुनिया में इस तरह गाफिल है कि उसे भूख  और प्यास से तड़पता पड़ोसी भी नज़र नहीं आता. 
दुनिया में जितना भोजन बर्बाद होता है उससे दो अरब लोगों के खाने की जरूरत पूरी हो सकती है. 
विश्व खाद्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनिया का हर सातवां इन्सान भूखा सो जाता है. विश्व भूख सूचकांक में भारत 67वें स्थान पर है और हर चौथा भारतीय भूखा सोता है. विश्व खाद्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल 50 हजार करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद  होता है. संयुक्त राष्ट्र संघ के के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चे अन्न-जल के अभाव में मरते हैं.
भोजन और पानी का संबंध 
भोजन की इस बर्बादी को पानी की बर्बादी से भी जोड़ कर देखा जा सकता है. इस समय भारत पानी की घटती उपलब्धता से भी दो-चार हो रहा है. जितना भोजन बर्बाद हो रहा है, उतना भोजन पैदा करने और पकाने में पानी भी तो इस्तेमाल होता है. यानि भोजन बर्बाद तो पानी भी बर्बाद. भारत के संदर्भ में इस प्रकार बर्बाद हुए पानी से 10 करोड़ लोगों की प्यास बुझ सकती है. 
यह पानी ही है जिसके साथ सभ्यताएं ही नहीं उद्योग और वाणिज्य भी फलता-फूलता आया है. फिर भी पानी के महत्व को समझने में हम आज तक सफल नहीं हो पा रहे. 
सिंधु घाटी सभ्यता को दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता माना जाता है. यह सभ्यता गंगा नदी के आसपास आज भी विकास और उद्योग की जिंदा मिसाल है.
भारत में भोजन के अलावा पानी को भी बर्बाद किया जा रहा है. जल संसाधन प्रभाग, टेरी के अनुसार 1951 में पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 5177 क्यूबिक मीटर थी जो कि 2011 में घटकर करीब 1545 हो गई . 
देश में पानी की कमी के कारकों में जल का दुरुपयोग और संसाधनों का कुप्रबंधन एक मुख्य कारण है. भारत दुनिया में एक प्रमुख कृषि प्रधान देश है और सिंचाई योग्य पानी की जरूरत भी ज्यादा है. सिंचाई के तरीके अभी भी पारंपरिक ही हैं. फव्वारा और  ड्रिप सिंचाई जैसे सूक्ष्म तरीकों का उपयोग अभी तक बहुत ही कम है. उधर सिंचाई के लिए पिछले चार दशकों से बोर कुओं का ज्यादा प्रयोग हुआ है जिससे भू-जल स्तर काफी नीचे चला गया है. देश में जहां पहले घरों में पानी की जरूरत कुएं पूरी करते थे, वहीं अब हैंड पम्प और ट्यूबवैल का प्रचलन बढ़ा है. इससे पानी के घरेलू दुरुपयोग का चलन समस्या को बढ़ा रहा है. 
जल की बढ़ती बर्बादी एक गंभीर चुनौती है, जिससे निपटने के लिए उतने ही गंभीर प्रयासों की जरूरत है. 
ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं हो रहे मगर जागरूकता के साथ मानसिकता में बदलाव के बगैर सब कुछ धरा रह जाएगा. 
सामाजिक और नैतिक चेतना है बड़ी जरूरी:
जैसा कि हम देख रहे हैं कि सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के कई अन्य देशों का भी कमोवेश यही हाल है. पर्व-त्योहारों, विवाह-शादियों, परिवारिक आयोजनों,  रोजमर्रा के क्रियाकलापों व दूसरी अनेक प्रकार की गतिविधियों के दौरान अन्न-जल की काफी बर्बादी हो रही है. अन्न-जल की इस बर्बादी का कारण जहां भौतिक जरूरतों में अप्रत्याशित बढ़ौतरी है वहीं सामाजिक और मानवीय भावनाओं में आ रही कमी भी है. 
जहां कानूनी प्रयास जरूरी हैं वहीं सामाजिक और मानवीय चेतना का होना सबसे ज्यादा जरूरी है. आधुनिकता और स्टेटस सिंबल की अपसंवेदन संस्कृति ने गरीब के मुख से रोटी और पानी छीन लिया है. बढ़ती सम्पन्नता के साथ ही संवेदनशीलता घट रही है. जहां खर्च करने की क्षमता बढ़ रही है वहीं भोजन को फेंकने और पानी को बर्बाद करने की आदत बढ़ रही है. 
विश्व खाद्य संगठन के एक प्रतिवेदन के अनुसार देश का 40 प्रतिशत खाद्य उत्पादन और 10 करोड़ लोगों की प्यास बुझाने योग्य पानी बर्बाद होता है.
हम देखा करते थे बचपन में कि जब गांव में विवाह-शादी या कोई परिवारिक आयोजन होता तो प्रीति भोज में बुजुर्ग सामाजिक सरोकारों व नैतिक मूल्यों के पैरोकार बन जाते. 
हालांकि उस समय अन्न-जल के संकट की देश में इतनी चर्चा नहीं थी जितनी कि आज है. फिर भी लंगर के बाद अन्न गरीबों और कामगारों में बांट दिया जाता. पानी लौटों में भरकर खाने वालों को उतना ही दिया जाता जितनी जरूरत होती. 
मनुष्य तो क्या जानवरों तक के अस्तित्व के लिए अन्न और जल एक बुनियादी जरूरत है. तेजी से हो रहे शहरीकरण और आधुनिकता ने मध्ययुगीन सामाजिक और नैतिक संस्कृति का काफी नुक्सान किया है. नैतिक, मानवीय और सामाजिक सुसंस्कृति से ही सरकारी प्रयासों और कानूनों की सफलता संभव है. 
          

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button