पंडित रामजी तिवारी यह साहित्यिक चोर है
इसने मेरी रचना को अपने नाम से अखबार छपवा दिया है। इसको पहचानिए । यह साहित्यिक चोर तो है ही है ब्राह्मणों के नाम पर भी यह कलंक है ।
कल परशुराम जयंती के अवसर पर बदायूं की एक संस्था द्वारा आयोजित ऑनलाइन कवि गोष्ठी में मैंने इन छंदों का पाठ किया है और आज यह कई अखबारों में छपा भी है।
रामजी तिवारी जैसे चोर मक्कार के बस में रचना लिखना नहीं है। यह केवल चोरी कर सकता है। आप इस चोर को पहचानिए और इसे नंगा करिए। दूसरे की रचना चोरी करते समय इस को शर्म भी नहीं आती।
आपका
प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
शिक्षक, साहित्यकार
उक्त मैसेज मुझे मेरे सम्मानित लेखक मान्य प्रमोद दीक्षित मलय का आज सुबह मिला। मैसेज पढ़कर हतप्रभ रह गया।
ऐसे लेखकों की रचना चोरी करनेवाले पर तरस भी आया कि साहित्यिक चोरी में जितना दिमाग इस कथित व्यक्ति ने खपाई है उससे कम माथापच्ची में यह खुद की रचना का सृजन कर सकता था।
जिस स्व कथित राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्र ने पंडित रामजी तिवारी की चुराई रचना का प्राथमिकता के साथ प्रकाशन किया है उसके स्तर का भी सहज ही पोल खुल गया कि इसके संपादक की बौद्धिक क्षमता कैसी है। भले ही ये अपने अखबार को राष्ट्रीय अखबार का लकब दे दें लेकिन लेखकीय समुदाय के साथ पत्रकारिता जगत में ऐसे ही लोग हैं जिन्होंने पत्रकारीय मर्यादा को तार तार करने की महती भूमिका निभाई और लेखकीय मर्यादा का तो इन्हें पता भी नहीं चल पाता। मैंने उक्त अखबार के संपादक को फोन किया तो उठाया नहीं। खैर।
आइए थोड़ी चर्चा मलय जी की भी करुं। एक सुयोग्य शिक्षक तो हैं ही, एक सुलझे हुए विचारक भी हैं। इनकी रचनाएं छापकर बड़े बड़े प्रकाशन वाले स्वयं को कृत कृत समझा करते हैं। ऐसे साहित्य के मनीषियों की आराधना में खलल डालने के बराबर है उनकी कृतियों की चोरी करना, और किसी तपस्वी की तपस्या में खलल डालने का अंजाम क्या हुआ करता है इसकी जानकारी वैदिक साहित्य और ग्रंथों में कई भरे पड़े हैं। पंडित रामजी तिवारी ने अगर याचक बनकर मलय से अनुरोध किया होता तो शायद इनकी एक कृपा दृष्टि ही तिवारी को लेखक बनने की राह पर ले आया होता।
मैं समझ सकता हूं कि एक रचनाकार की रचना के साथ उसकी भावनाएं किस तरह जुड़ी हुई होती है, रचना को भटकते हुए नहीं देख सकता एक रचयिता। उसकी हर सांस उसकी रचनाओं के हर एक आखरों से चिपकी रहती है, वैसे मे उसे कोई अन्य के स्वामित्व को कैसे सहन कर सकता ?
किसी दूसरे की भाषा, विचार, उपाय, शैली आदि का अधिकांशतः नकल करते हुए अपने मौलिक कृति के रूप में प्रकाशन करना साहित्यिक चोरी है। यूरोप में अट्ठारहवीं शती के बाद ही इस तरह का व्यवहार अनैतिक व्यवहार माना जाने लगा। इसके पूर्व की शताब्दियों में लेखक एवं कलाकार अपने क्षेत्र के श्रेष्ठ सृजन की हूबहू नकल करने के लिये प्रोत्साहित किये जाते थे। साहित्यिक चोरी तब मानी जाती है, जब हम किसी के द्वारा लिखे गए साहित्य को बिना उसका सन्दर्भ दिए अपने नाम से प्रकाशित कर लेते हैं। इस प्रकार से लिया गया साहित्य अनैतिक मन जाता है और इसे साहित्यिक चोरी कहा जाता है।
ये जरूरी है कि एक अपराध करने वाले को सजा दी जानी चाहिए। बेहतर होगा। किंचित लेखकीय दिल नाजुक और मुलायम भी कम नहीं होता, संभव है अगर तिवारी जैसे साहित्यिक चोरी का अपराधी मलय सरीखे मनीषि से क्षमा याचना करें तो उन्हें मिल भी जाए, अन्यथा साहित्य के क्षेत्र में यह चोरी तिवारी के लिए अभिशाप बन जाएगा, इसमें कोई दो राय नहीं।