अनिल अनूप
पिछले कुछ दिनों से विभिन्न व्हाट्सप ग्रुपों में आत्मकथ्य पत्रकारों का एक पोस्ट छाया हुआ है। उसमें जो कहा गया है उसका सार सूचना प्रसारण मंत्रालय ने न्यूज़ पोर्टलों को नकली और उससे जुड़े सहयोगी पत्रकारों को फर्जी करार देते हुए उसपर कार्रवाई की बात कही गई है। मैंने उस पोस्ट की वास्तविकता की खाक छानी तो स्पष्ट हुआ कि ये फेक पोस्टिंग उन सिरफिरे पत्रकार की शक्ल अख्तियार किए चंद लोगों की कुत्सित मानसिकता का परिचायक है जिन्हें न तो पत्रकारिता का ABCD पता है और ना ही उनको लेखकीय क्षमता की अनुभूति है। इतना ही नहीं, उन्हें ये भी पता नहीं कि RNI का मतलब क्या है और इसकी उपयोगिता करता है ?
कुल मिला कर न्यूज चैनल, पोर्टल को वो लोग फेक बता रहे हैं जो खुद RNI लेकर PDF संस्करण निकाल कर अपने आप को मूर्धन्य पत्रकार की श्रेणी में अपना नाम अंकित कराने की जुगत में हैं।
स्पष्ट करना चाहता हूं कि न्यूज पोर्टल फेक नहीं बल्कि संवाद के त्वरित संचारकों की एक बहुउपयोगी साधन है जिसने अब तक बहुत सारे कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आइए कुछ तथ्यों पर आप भी गौर करें।
पोर्टल इंटरनेट और विश्वव्यापी वेब के संदर्भ में जालस्थलों (वेबसाइट्स) के समूह को कहा जाता है। पोर्टल का शाब्दिक अर्थ होता है प्रवेशद्वार। एक पोर्टल वास्तव में स्वयं भी एक जालस्थल होता है, जिससे दूसरे कई अन्य संबंधित जालस्थलों पर पहुंचा जा सकता है। इंटरनेट से जुड़ने पर कई प्रकार के पोर्टल मिलते हैं। ये अंतर्जाल के अथाह सागर में एक लंगर की तरह काम करता है। इन पर विभिन्न स्त्रोतों से जानकारियां जुटाकर व्यवस्थित रूप में उपलब्ध करायी जाती हैं। इसके साथ ही पोर्टल पर कई तरह की सेवाएं भी दी जाती हैं, जैसे कई पोर्टल पर उपयोक्ताओं को सर्च इंजन उपलब्ध कराया जाता है, इसके अलावा, कम्युनिटी चैट फोरम, निजी गृह-पृष्ठ (होम पेज) और ईमेल की सुविधाएं भी दी गई होती हैं। पोर्टल पर समाचार, स्टॉक मूल्य और फिल्म आदि की गपशप भी देख सकते हैं। कुछ सार्वजनिक वेब पोर्टलों के उदाहरण हैं: एओएल, आईगूगल, एमएसएन, याहू आदि।
ऐतिहासिक रूप में पोर्टल का प्रयोग किसी द्वार, इमारत या अन्य संरचना के मुख द्वार रूप में किया जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ था वहां प्रवेश करने के लिए एक प्रभावी मार्ग। मोटे तौर पर वेब पोर्टल उपयोक्ताओं को आधारभूत जानकारी उपलब्ध कराता है। साथ ही इसके माध्यम से विभिन्न अन्य साइट्स तक पहुंच सकते हैं।एक विशेष सुविधा यह है कि एक पोर्टल पर उपयोक्ता अपना स्वयं का कैलेंडर तैयार कर सकते हैं और महत्वपूर्ण अवसरों के लिए अनुस्मारक (रिमाइंडर) भी बना सकते हैं। उपयोक्ता अपना पोर्टल तैयार कर उसमें अपनी रुचियों, कार्य, यात्राओं आदि के बारे में भी पाठ को पृथक-पृथक रूप में डाल सकते हैं। इसी तरह प्रशासन नागरिकों को अपने पोर्टल के माध्यम से मौसम की जानकारी उपलब्ध करा सकता है। साथ ही उसमें वहां की खबरें और शेष सरकारी जानकारी भी हो सकती हैं। इसमें सरकार के प्रतीक चिह्न्, भाषण, उपभोक्ता सेवाएं और कर, आदि से संबंधित जानकारी भी शामिल हो सकती हैं।
१९९० के दशक के अंतिम वर्षों में वेब पोर्टल काफी प्रचलित हुए थे। वेब ब्राउज़रों के उद्भाव के उपरांत कई कंपनियों ने एक न एक पोर्टल बनवा लिया या बनवाने में प्रयासरत रहे, जिससे कि अपनी कंपनी को तेजी से फैलते हुए इंटरनेट के संसार में अपनी कंपनी को स्थान दिला पायें। ये वेब पोर्टल विशेष आकर्षण का केन्द्र थे, क्योंकि बहुत से इंटरनेट उपयोक्ताओं के लिये ये वेब ब्राउज़र आरंभ करने का बिन्दु हुआ करते थे। नेटस्केप अमेरीका ऑनलाइन का भाग बन गया, वॉल्ट डिज़्ने ने Go.com लॉन्च किया, तथा एक्साइट और @Home आगे चलकर २००० से कुछ समय पूर्व AT&T का भाग बन गये।
२०००-०१ के बीच इनमें से कई पोर्टल बंद होने के कगार पर भी पहुंच गये, जैसे डिज़्ने ने Go.com को बाजार से वापस ले लिये था, एक्साइट भी दीवालिया हो गया और उसके अवशेष iWon.com को बेच दिये गए। किन्तु इस दौड़ में याहू आदि जैसे अनेक पोर्टल पूरे रूप से सफल रहे और आज भी इंटरनेट के आसमान पर चमक रहे हैं।
कुछ पोर्टल्स रोजगार, शिक्षा और नागरिक सुरक्षा की सूचना भी देते हैं। निगमित पोर्टल्स भी काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। किसी निगम के वेब पोर्टल पर उसके कर्मचारियों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए स्वयंसेवा से जुड़ी गतिविधियों की जानकारी दी जाती है। इसमें काम करने वाले लोग पोर्टल से अपने लिए आवश्यक सूचनाएं जैसे, वेतन, प्रतिपूरक सुविधाएं, नोटिस और अन्य जानकारी के बारे में जान सकते हैं जबकि उपभोक्ता कंपनी की नई परियोजनाओं. उसके नए कार्य भुगतान का इतिहास आदि के बारे में जान सकते हैं।
वेबसाइट और पोर्टल अलग-अलग शब्द हैं, लेकिन वेबसाइट और पोर्टल दोनों में वेब-आधारित इंटरफ़ेस होता है; वेबसाइट वेब पेजों का संग्रह है जबकि एक पोर्टल वर्ल्ड वाइड वेब के प्रवेश द्वार के(Gateway) के रूप में कार्य करता है और कई सेवाएं प्रदान करता है।संगठन वेबसाइट का मालिक होता है। दूसरी ओर, एक पोर्टल उपयोगकर्ता-केंद्रित है जिसका अर्थ है कि उपयोगकर्ता संभवतः जानकारी और डेटा प्रदान कर सकता है।
हिन्दी ख़बरों को इंटरनेट तक पहुंचाने वाली वेबसाइट वेबदुनिया आज 10 साल की हो गई। अख़बारों और टेलीविज़नों से अलग इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में ख़बरों का प्रसार शुरू करने में वेबदुनिया अलग भूमिका रही है।
22 सितंबर 1999 को वेबदुनिया ने जब अपनी नन्ही आंखें खोली थीं तब सामने खड़े थे ढेर सारे सपने, अपेक्षाएं और संभावनाएं। कई सवाल और कई समस्याएं। आशंका और भय का नामोनिशान नहीं था लेकिन विश्वास और परंपरा का परचम न झुकने पाए यह चिन्ता अवश्य कसमसा रही थी। इरादे नेक थे और हौसला बुलन्द. परिणाम सामने है।
वेबदुनिया आज हिन्दी के साथ साथ पंजाबी, मराठी, गुजराती बंगला, मलयालम, कन्नड़, तमिल और तेलुगू भाषा में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। विश्व का यह पहला हिन्दी पोर्टल न सिर्फ भाषा के स्तर पर विश्वसनीय सिद्ध हुआ, बल्कि शैली, शिल्प, विषय वस्तु और विविधता की दृष्टि से भी श्रेष्ठतम रहा। वेबदुनिया के आने पर असंख्य सवाल थे।
साहित्य को इन दिनों अपने पाठक बढ़ाने या नए पाठक बनाने का एक नया ज़रिया मिल गया है।
देश और काल की सीमाओं से परे, ये ज़रिया है – इंटरनेट।
हिंदी साहित्य आज नई या शौकिया वेबसाइटों पर ही नहीं बड़े व्यवसायिक पोर्टलों पर भी व्यापक रूप में सामने आ रहा है।
हिंदी की कई प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएं मसलन हंस, कथादेश, तदभव आदि आज दुनिया के किसी भी कोने में बिना इंतज़ार कम्प्यूटर स्क्रीन पर पढ़ी जा सकती हैं।
लेकिन इंटरनेट पर साहित्य को देखकर कुछ सवाल भी उठने लगे हैं।
जो गंभीरता या एकाग्रता किताब पढ़ने में होती है वह मुझे लगता है कि इंटरनेट पर नहीं होती, उस तरह की ग्रहणशीलता भी इंटरनेट पर नहीं बन पाती, वहां सूचनात्मकता ज़्यादा है।
सवाल ये कि क्या सामग्री की गंभीरता और स्तरीयता का ध्यान रखा जा रहा है ?
क्या लोकप्रियता और स्तरीयता के बीच कोई टकराव है ?
क्योंकि पत्रिकाओं को छोड़कर बाक़ी साहित्यिक सामग्री को या यूं कहे कि हिंदी के वेब साहित्य को न तो लिखने वाले गंभीरता से ले रहे हैं न ही पढ़ने ही वाले।
हंस के संपादक और प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र यादव कहते हैं ‘जो गंभीरता या एकाग्रता किताब पढ़ने में होती है वह मुझे लगता है कि इंटरनेट पर नहीं होती, उस तरह की ग्रहणशीलता भी इंटरनेट पर नहीं बन पाती, वहां सूचनात्मकता ज़्यादा है।’
स्वतंत्र भूमिका नहीं
शायद ये बात बड़े पोर्टलों को भी महसूस हुई है।इसीलिए साहित्य उनके वेबपृष्ठों में शामिल तो हैं लेकिन उनकी स्वतंत्र या प्रमुख भूमिका नहीं, महत्वपूर्ण चाहे हो।
हिंदी पोर्टल वेबदुनिया के प्रधान संपादक रवींद्र शाह कहते हैं कि साहित्य इंटरनेट पर आए लोगों को उससे जोड़े रखने की भूमिका निभाता है और निभा रहा है।
शाह के अनुसार समाचार का एक पेज देखने के बाद काफी लोग साहित्य की तरफ आते हैं और एक बार में 30-40 पेज तक देखते हैं।
गंभीरता और स्तरीयता
हिंदी साहित्य के प्रति बढ़ता रुझान नई-नई वेबसाइटों को तो सामने ला रहा है फिर भी सामग्री गंभीर नहीं और स्तर पर भी पूरा ध्यान अभी नहीं दिया जा रहा।
हंस के संपादक राजेंद्र यादव कहते हैं कि वेब का दर्शक-पाठक अभी इतनी गंभीरता का अभ्यस्त नहीं हुआ है।
यादव के अनुसार विचार करने को या अपने भीतर उतरने को प्रेरित करने वाले साहित्य को इससे कोई मदद नहीं मिलती।
रवींद्र शाह कहते हैं कि उत्तरदायित्व का अभाव और कम फीडबैक सुधार के मौक़े नहीं देता जबकि राजेंद्र यादव मानते हैं कि रचनाओं पर वेब के पाठकों की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती जिससे लगता है जैसे लोग पढ़ते ही नहीं।
आर्थिक पहलू
ऐसा नहीं कि इंटरनेट पर उपलब्ध हिंदी साहित्य की पूरी सामग्री को ही स्तरहीनता का शिकार मान लिया जाए।
लेकिन कई वेबसाइटें ऐसी हैं जिन्हें देखकर आज वर्तमान हिंदी साहित्य की एक ग़लत तस्वीर बनती है।
भारत के बाहर ऐसी वेबसाइटें लोकप्रिय भी हो रहीं हैं। इसके लिए लोकप्रियता और स्तरीयता में टकराव अकेली वजह नहीं।
वेबदुनिया के प्रधान संपादक रवींद्र शाह मानते हैं ‘इंटरनेट का आर्थिक पक्ष बहुत कमज़ोर है, स्थानीय भाषाओं में ये और कमज़ोर हो जाता है और साहित्य में तो आर्थिक पक्ष का अस्तित्व ही नहीं है’।
उनका कहना है कि सर्वर स्पेस कोई पत्रिका निकालने के मुक़ाबले इतना सस्ता है कि शौकिया लोग ऐसी साइटें बनाकर उस पर अपने लोगों को अक्सर प्रोत्साहित करते हैं।
ऐसे में हिंदी वेब साहित्य में स्तरीयता लाने के लिए पाठकों की प्रतिक्रिया बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।