मान-सम्मान के सवाल पर अखिलेश यादव व शिवपाल यादव के लिए राहें पूरी तरह जुदा हो गईं हैं लेकिन अब सवाल है कि शिवपाल यादव अगले लोकसभा चुनाव में सपा को कितना नुकसान करेंगे या यूं कहें कि वह भाजपा के लिए सपा के मूल वोट बैंक में कितनी सेंध लगा पाते हैं। अखिलेश यादव के लिए चार चुनाव हार के बाद पांचवां चुनाव जीतने की चुनौती है तो शिवपाल यादव के लिए भी खुद को साबित करने की।
सपा में अखिलेश की राह में भविष्य का संकट खत्म, पर भाजपा से मुकाबला बड़ी चुनौती
शिवपाल खुद को सपा का नेता व विधायक बताते रहे लेकिन सपा ने सहयोगी प्रसपा का नेता मानती रही। यह कश्मकश इसलिए थी कि सपा में अगर जरा भी शिवपाल को सक्रियता दिखाने का मौका मिलता था तो पार्टी के भीतर दो केंद्र बनते देर नहीं लगती। सपा को खड़ा करने का अनुभव व संगठन में पकड़ रखने के चलते शिवपाल भविष्य में खतरा बन सकते थे। अब सम्मान विदा कर सपा ने भविष्य के लिए संकट को दूर करने की कोशिश की है। अखिलेश के लिए यह राहत भरी बात है लेकिन शिवपाल को साथ लेकर वह भाजपा को शिकस्त दे सकते हैं या शिवपाल के बिना वह ऐसा कर सकते है, यह चुनाव नतीजे बताएंगे।
शिवपाल को खुद को साबित करने की चुनौती
शिवपाल यादव अपनी पार्टी प्रसपा को नए सिरे से मजबूती में लगे हैं। सपा के चक्कर में उनकी पार्टी संगठन के तौर पर तीन -तेरह हो गई है। अब उन्होंने लोकसभा चुनाव अपने बूते लड़ने का ऐलान किया है। उसमें दो साल हैं और अभी यह तय नहीं कि वह भाजपा में शामिल होकर सहयोग करेंगे या गठबंधन करके या फिर वह कोई और मोर्चा बनाने की जुगत में लगेंगे। पर हर हाल में उन्हें अपनी ताकत साबित करनी होगी। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। वह खुद भी लोकसभा चुनाव हार गए। पर इतना जरूर हुआ कि यादव बाहुल्य कई सीटों पर प्रसपा की मौजूदगी से सपा को नुकसान हुआ।
सपा कर रही भाजपा की रणनीति को नाकाम करने की कोशिश
विधानसभा चुनाव बाद शिवपाल यादव और ओम प्रकाश राजभर जब भी सपा नेतृत्व पर तंज भरे हमले करते थे तो भाजपा इस बहाने सपा को घेरती थी। भाजपा का आरोप रहता था कि सपा के सहयोगी ही उस पर सवाल उठा रहे हैं या पार्टी में चाचा का सम्मान नहीं हो रहा है। अब इन दोनों नेताओं को निकाले बिना कहीं भी जाने की छूट वाला संदेश देकर सपा ने इस मुद्दे पर खुद के बचाव की कोशिश की है। अब चूंकि दोनों दूर हो चुके हैं, ऐसे में सपा पर इनका सम्मान न करने की बात में दम नहीं रह जाएगा।
सात साल के रिश्तों में आया इस तरह उतार चढ़ाव
-सपा सरकार में रहते हुए शिवपाल व अखिलेश के रिश्ते 2015 से ही बिगड़ने लगे थे और अगले साल परिवारिक विवाद व सत्ता संघर्ष के चलते हालात और खराब हो गए।
-विधानसभा चुनाव के मौसम में एक जनवरी 2017 को अखिलेश यादव ने खुद ही सपा की कमान संभाल ली और शिवपाल पार्टी में सभी पदों हटाकर किनारे कर दिए गए। अलबत्ता शिवपाल सपा से ही चुनाव लड़े और विधायक बने।
-2019 के लोकसभा चुनाव से पहले शिवपाल ने सपा छोड़कर अपनी पार्टी प्रसपा लोहिया बना ली। अपनी पार्टी से वह फिरोजाबाद लोकसभा चुनाव लड़े लेकिन जीत नहीं पाए।
-इस साल 2022 का चुनाव के वक्त अखिलेश शिवपाल के घर गए और अपनी पार्टी में शामिल करा लिया। इस कारण शिवपाल ने अपनी रथयात्रा छोड़ दी। और सपा के टिकट पर चुनाव लड़े और जीते पर दूरी फिर बढ़ने लगी
– अब राष्ट्रपति चुनाव के लिए बैठकों में शिवपाल को सपा ने बुलाया नहीं तो वह खुल एनडीए प्रत्याशी के पक्ष में आ गए और उन्हें वोट दिया। अखिलेश ने शिवपाल यादव द्वारा विपक्ष के प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के बयान के आधार पर नेताजी के अपमान का मुद्दा बना कर पत्र लिखने को भाजपा की साजिश का हिस्सा बताया था।