कुलतारक गौकर्ण
श्रीमद् भागवत पुराण जिसे पंचम वेद भी कहा गया है। इसमें गोकर्ण जी की कथा हमारे जीवन के दिए आदर्शवान तथा प्रेरणादायी है। गौकर्ण जी ने पथभ्रष्ट परिवार को सद्गति दिलायी।
दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर वेदपाठी आत्मदेव ब्राहमण रहते थे।भगवत भक्त आत्मदेव सदैव ईश्वर के गुणगान, भजन और प्रवचन में लीन रहते थे। उनकी पत्नी धुंधुली सुन्दर तो थी, किन्तु वह बहुत निर्दयी और झगड़ालू थी। घर में इसके कारण कलह रहती थी। आत्म देव निःसंतान थे। कलह और संतानहीनता के कारण वह सदैव दुखी और चिंतित रहने लगे। आत्मदेव ने घर छोड़कर वन में जाकर कुटिया बना रहने लगे। एक दिन ईश्वर के ध्यान में लीन आत्मदेव की एक महात्मा से भेंट हुई। उन्होने साधु को संतान न होने का दुख बताया । महात्मा जी ने आत्मदेव को संतान पाने के लिए एक फल पत्नी को खाने को दिया। आत्मदेव वापस घर लौट आए।
घर आकर आत्मदेव ने साधु महाराज के कहे अनुसार पत्नी को फल खाने के लिए दिया। दुर्गुणी पत्नी धुंधुली ने प्रसव पीड़ा और अन्य परेशानियों की सोचकर वह फल गाय को खिला दिया। पूर्व योजना के अनुसार पहले से गर्भवती बहन की संतान अपने पास ले आयी। तीन माह बाद गाय को संतान उत्पत्ति हुई। जिसके कान यानी कर्ण गाय के समान तथा शेष शरीर मानव की तरह था। इनका नाम गोकर्ण और धुंधुली पुत्र को धुंधकारी नाम मिला। गौकर्ण जी स्वभाव से सरल, सदाचारी, शिष्ट, मृदुभाषी और बुद्धिमान वहीं धुंधकारी दुराचारी दूसरों को दुख देने वाली आदत का कपूत था। धीरे-धीरे उसने घर का सब सामान बेच दिया। आए दिन माता पिता, भाई गौकर्ण को दुखी करने लगा। इस बीच आत्मदेव और धुंधुली का देहांत हो गया और गोकर्ण विद्या अध्ययन के लिए देशाटन पर निकल गए। कुछ समय के बाद धुंधकारी अकाल मृत्यु के कारण प्रेत योनि को प्राप्त हुआ।
ज्ञान प्राप्त करके गौकर्ण भगवतभक्त सिद्ध पुरुष हुए। हरिकथा का प्रवचन सत्संग उनके जीवन का अंग बन गया ।. स्थान-स्थान घूमते हुए वह एक दिन अपनी जन्मभूमि पहुँचे। वहाँ उन्हें एक प्रेत की हरकतें परेशान करने लगीं। उन्होंने कमण्डल से जल ले अभिमंत्रित करके उस प्रेत आत्मा पर छिड़़का और पूछा
“तुम कौन हो तुम? “
“आपका बड़ा भाई धुंधकारी……. अकाल मृत्यु के कारण मुझे प्रेत योनि मिली है।”
इसी के हाथ बहुत रोने लगा। गोकर्ण जी ने उसे ढ़ाढ़स बंधाया। दूसरे दिन श्रीमद भागवत कथा सुनाने के लिए आसन लगाया। यजमान के स्थान पर सात गाँठ का ‘बांस गाड़़कर कथा आरम्भ की। प्रति दिन कथा विराम के बाद एक गांठ चटकते हुए सातवें दिवस अंतिम गाँठ चटक गयी। उसी समय उसमें से एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ और पूर्णाहुति के समय हवन कुण्ड में वह दिव्य प्रकाश विलीन हो गया।
अंततः महाराज गौकर्ण जी ने अपने सद् ज्ञान , कौशल, बुद्धि और भक्ति के द्वारा अपने कुलतारक बन गए। भगवान की कृपा से अंत में मोक्ष प्राप्त हुआ।
शब्दांकन –