बीरेंद्र कुमार की रिपोर्ट
प्रयागराज। संगम नगरी धर्म और साहित्य नहीं नहीं, बल्कि अपनी उत्सवधर्मिता के लिए भी प्रसिद्ध है। अवधी और बनारसी की मिठास लिए यहां की भाषा की तरह ही त्योहार मानाने और और उसे अलग रंग देने का अंदाज भी निराला ही है। रंगों के त्योहार में होने वाली हुडदंग भले अब बदल रही हो लेकिन फागुनी बयार की परम्पराएं आज भी जिन्दा है। ऐसा ही एक रंग है पुराने शहर के लोकनाथ में ठठेरी बाज़ार की कपड़ा फाड़ होली का। इसे देखने और इसमें शामिल होने के लिए आज भी बड़ी संख्या में युवा पंहुचते हैं। यहां पर होली का रंग तीन दिन तक चलता है।
ढोलक की थाप डीजे के धुन में खो गई
लोकनाथ की होली की बात जब भी होगी तो साहित्यकारों से लेकर सियासी दिग्गजों के नाम जरुर याद किये जायेंगे। लोकनाथ के रहने वाले बुजुर्ग हरिमोहन मालवीय बताते है की कभी पंडित नेहरू के ढोलक की थाप पर हरिवंश राय बच्चन के गीत गाये जाते थे। भले ही आज ढोलक की थाप जगह डीजे ने ले लिया होए लेकिन होली का उत्सव आनंद भरा होता है। जब होलियारे मुहल्लों और चौराहों से निकलकर घर की चौखट पर ढोल मजीरे की धुन पर होली खेले रघुबीरा गाते हैं तो मन फागुनी रंग में सराबोर हो जाता है। रंगों की मस्ती में हर कोई झूम जाता था।
लोग छुट्टियां लेकर घर आते हैं
प्रसिद्ध कवि यश मालवीय बताते है की लोकनाथ चौराहे और अतरसुइया के बड़े पार्क में टेसू के फूलों से बने रंग बड़े. बड़े ड्रमो में इकट्ठे किए जाते थे। होली की शुरुआत अबीर गुलाल से होती थी। फिर रंग की बौछार होती। रिश्तो का रंग तो था ही। महिलाओं की टोलियां अलग दिखती थीं। दोपहर बाद रंग खेलना बंद हो जाता था। हर चौराहे पर रंगों से भरे ड्रमों में कोई भी किसी को डुबो देता था। चौक नखासकोना भारत भारती भवन कोतवाली हीवेट रोड रामबाग साउथ मलाका में खास तरह की होली मनाई जाती थी। जिसकी तैयारी हर कोई महीनों से करताए लोग छुट्टियां लेकर आते थे।
साहित्यकारों की होली का अजब रंग
एक समय था जब प्रयागराज हिन्दी साहित्य की राजधानी था। रचनाकारों की होली का रंग सबसे अलग हुआ करता था। शहर के मसहूर व्यवसायी मोहन जी टंडन बच्चा भैया ने बताते है की मुट्ठीगंज में बिना छतरी वाली इक्का पर ढोल मजीरा के साथ गीत गाते साहित्यकारों की टोली निकलती थी। अद्भुत नजारा होता था। साहित्यकारों की टोली में उमाकांत मालवीय गोपीकृष्ण गोपेश अमरनाथ श्रीवास्तव कैलाश गौतम अमृतराय नरेश मेहता शामिल होते थे। दूसरी तरफ से आने वाली डोली में कथाकार दूधनाथ सिंह लक्ष्मीधर मालवीय अपनी जमात लेकर पहुंचते थे।
अमिताभ भी शामिल होते थे
पुराने कांग्रेसी बाबा अभय अवस्थी बताते हैं की चौक के मीरगंज से पंडित नेहरू और जीरो रोड से हरिवंश राय बच्चन गले में ढोल टांगे होली गाते। जब निकलते थे तो करवा साथ चलने लगता था। बच्चन तो कई बार साडी पहन कर नाचते गाते हुए निकल पड़ते। उनके साथ अमिताभ भी होली का हिस्सा बनते थे। उनकी विरासत आज भी चल रही है बस स्वारूप बदल गया है।
नागवासुकी मंदिर पर होली
साहित्यकार धनंजय चोपड़ा कहते हैं कि पुरानी होली भूली नहीं जा सकती। लोकनाथ से होलियारे कई किलोमीटर पैदल चलकर नागवासुकी मंदिर पर भगवान शिव के सामने फगुआ गाते।
उसमें आज की तरह फिल्मी धुन नहीं बल्कि फगुआ गाने वालों की टोली के ढोलक की थाप से निकलने वाले धुन पर सबको मदमस्त कर देती थी।आज भी पुराने शहर में यह रवायत कयाम है और लोकनाथ की गली में भगवान् के मंदिर होली गयी जाती है।