आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
लखनऊ। किसी भी कृषि प्रधान देश का सबसे महत्वपूर्ण आधार किसान जब न केवल बदहाली का जीवन जीने को अभिशप्त हो बल्कि आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने तक को मजबूर हो जाए तो देश के विकास का सपना देखना बेमानी लगता है। कृषि मंत्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकडे बताते हैं कि खेती-किसानी के कारण कर्ज के जाल मे फंसे किसान न सिर्फ बदहाली का जीवन जी रहे है बल्कि आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं।
पिछले लगभग दो दशक से देश में साल दर साल किसानों की आत्महत्या के बढते आंकडे इस सच्चाई को उजागर करते हैं। कि इन आंकड़ों के मुताबिक बीते दो दशक के दौरान लगभग साढ़े तीन लाख किसानों ने कृषि क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं के चलते आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। जबकि इन आत्महत्या के आकड़ो मे महिला किसान शामिल नहीं है |
बीज और खाद आदि के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण बर्बाद हो गई फसल की भरपाई करते हुए सरकार उनके सम्मानजनक जीवन यापन का बंदोबस्त कर सके। यही नहीं, हाईब्रिड फसलों के नाम पर किसानों के सामने महंगे बीज का संकट उनकी पारंपरिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है, किसानों के सामने इधर खाई तो उधर कुआं वाला दोहरा संकट हमेशा बना रहता है। प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण रोटी के भी लाले पड़ जाते है और निराशा आत्महत्या तक ले जाती है लेकिन जरूरत से ज्यादा फसलो का उत्पादन भी उसके लिए आफत का पैगाम लेकर ही आता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। एक समय था जब भारतीय अर्थव्यवस्था मे सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खेती किसानी का था परन्तु आज उसके बिल्कुल विपरीत आखिर ऐसा क्यू हाल ही मे एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था में ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी बेहद ही निराशाजनक है भारत में गांवों का समुचित विकास न होने का एक प्रमुख कारण कृषि पर निर्भर आबादी मे तेजी से वृद्धि होना है। एनएसएसओ का कहना है कि कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान आजादी के बाद करीब 50 फीसदी था, ! आजादी के बाद किसी भी सरकार ने इस बारे में कभी गंभीरता से प्रयास नहीं किए। हमारे राजनेताओं और नौकरशाहों कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि हमारी खेतीबाडी समृद्ध हो और हमारे किसान व गांव खुशहाल बने। नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खाद के जरिए जो हरित क्रांति हुई, वह देशव्यापी स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश जैसे देश के उन्हीं इलाकों में देखने को मिला, जहां के किसान खेती में ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे। आज केवल सब्सिडी और कर्ज माफी के जरिए किसानों को मौजूदा संकट से नहीं उबारा जा सकता। किसानों का जीवन स्तर ऊंचा उठाना है तो निश्चित रूप से हमें कृषि उत्पादन की ऐसी व्यवस्था लागू करना होगी, जिससे उनकी वार्षिक आय में प्रतिवर्ष वृद्धि हो सके और नुकसान की संभावना कम से कम हो सके। सब्सिडी एवं कर्ज माफी के रूप में सरकारी खजाने से खर्च होने वाले पैसे का उपयोग कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले आधुनिक उपकरणों और गांव के विकास में खर्च किया जा सकता है,जब तक किसानों की संपूर्ण कर्ज माफी नहीं होगी, तब तक किसानों की उन्नति के बारे में सोचना भी बेमानी होगी.!