हमारे चित्रकूट ब्यूरो की रिपोर्ट
चित्रकूट। “महुआ” जिसकी मदहोश मीठी भीनी सुगंध मन मस्तिष्क को आह्लादित कर देती है। मार्च के अंतिम सप्ताह से लेकर अप्रैल के अंतिम व मई के शुरुआती दिनों तक ग्रामीण इलाकों की फ़िजाएं महुआ की महक में अंगड़ाई लेती हैं। जंगली इलाकों में तो पूरा जंगल इसकी खुशबू से गुलजार रहता है। आज के आधुनिक युग में महुआ की मिठास सिर्फ गांव देहात तक ही सीमित रह गई है। या यूं कह सकते हैं कि प्रकृति प्रदत्त औषधीय गुणों से युक्त इसकी पहचान शराब बनाने में प्रयुक्त होने वाली एक महत्वपूर्ण सामग्री के रूप में ज़्यादा पैठ बना चुकी है। बड़े शहरों महानगरों में महुआ को काफी हद तक इसी की वजह से जाना जाता है। परन्तु यही महुआ आज भी असंख्य परिवारों की रोजी रोटी का ज़रिया है। खासकर आदिवासी समुदाय के लिए महुआ किसी वरदान से कम नहीं क्योंकि इसकी वजह से उनके पेट भरने का इंतजाम हो जाता है।
अंग अंग उपयोगी
गर्म क्षेत्रों में इसकी खेती इसके स्निग्ध (तैलीय) बीजों, फूलों और लकड़ी के लिये की जाती है। कच्चे फलों की सब्जी भी बनती है। पके हुए फलों का गूदा खाने में मीठा होता है। प्रति वृक्ष उसकी आयु के अनुसार सालाना 20 से 200 किलो के बीच बीजों का उत्पादन कर सकते हैं। इसके तेल का प्रयोग (जो सामान्य तापमान पर जम जाता है) त्वचा की देखभाल, साबुन या डिटर्जेंट का निर्माण करने के लिए और वनस्पति मक्खन के रूप में किया जाता है। ईंधन तेल के रूप में भी इसका प्रयोग किया जाता है। तेल निकलने के बाद बचे इसके खल का प्रयोग जानवरों के खाने और उर्वरक के रूप में किया जाता है। इसके सूखे फूलों का प्रयोग मेवे के रूप में किया जा सकता है। इसके फूलों का उपयोग भारत के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में शराब के उत्पादन के लिए भी किया जाता है। कई भागों में पेड़ को उसके औषधीय गुणों के लिए उपयोग किया जाता है, इसकी छाल को औषधीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता है। कई आदिवासी समुदायों में इसकी उपयोगिता की वजह से इसे पवित्र माना जाता है।
वनस्पति जगत में ऐसे पेड़-पौधे बहुत कम हैं जिनका हर भाग व अंग जैसे तना, छाल, पत्तियाँ, फूल, फल व बीज किसी-न-किसी रूप में न केवल इंसानों के बल्कि विभिन्न प्रजाति के जीव-जन्तुओं के लिये बहु उपयोगी होते हैं।
भारत में भी एक ऐसा छायादार वृक्ष मौजूद है जिसके लगभग सभी अंग न केवल बहु उपयोगी हैं बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पोषित एवं सुदृढ़ भी करते हैं। कल्प वृक्ष की भाँति यह वृक्ष और कोई नहीं बल्कि हमारे ग्रामीण परिवेश व वनों में पाया जाने वाला सदाबहार महुआ है जो विषम परिस्थितियों में भी जीवित रहता है।
वनस्पतिशास्त्र में इसका वैज्ञानिक नाम मधुका लोंगफोलिआ है जो पादपों के सपोटेसी परिवार से सम्बन्धित वृक्ष है। परन्तु संस्कृत में इसे मधूक या गुडपुष्प व अंग्रेजी में बटर ट्री नाम से जानते हैं।
महुआ रेगिस्तानी इलाकों के अलावा देश के लगभग सभी भू-भागों में देखने को मिल जाते हैं। लेकिन उत्तर व मध्य भारत के मैदानी क्षेत्रों व वनों में ये बहुतायत में मिलते हैं। चूँकि यह उष्णकटिबंधीय वृक्ष हैं अर्थात कम पानी होने के बावजूद यह हल्की नमी होने पर भी तेजी से बड़ा हो जाता है। इसकी ऊँचाई 20 मीटर तक की हो सकती है।
महुए की बहु उपयोगिता
महुआ कमाल का सदाबहार छायादार वृक्ष है। इसके हर भाग व अंग न केवल मनुष्यों के लिये बल्कि छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं के लिये भी उपयोगी होते हैं। तपती गर्मी में इसकी ठंडी छाँव में मनुष्य व वन्यजीव सुकून से आराम करते हैं। यह कई पक्षियों का सुरक्षित आश्रय है जहाँ ये बिना किसी भय से अपनी वंश वृद्धि करते हैं। यह वृक्ष प्राणवायु का बड़ा व बेहतरीन स्रोत है। इसके आस-पास के वातावरण में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन होती है।
गरीब तबके के लोगों को महुआ से साल भर के लिये ईंधन हेतु जलाऊ लकड़ी मिल जाती है। इसकी छाल, फल व फूल में औषधिय गुण होने से इनका उपयोग आयुर्वेदिक उपचार में किया जाता है। भोजन करने के लिये इसके पत्तों से पत्तल व दोने बनाए जाते हैं जो प्रदूषण रहित होते हैं। इसकी पत्तियाँ व फूल पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं इसलिये ये पशुओं के लिये बेहतरीन पौष्टिक आहार होते हैं। इनको खिलाने से पशु में दूध की गुणवता व मात्रा दोनों में ही बढ़त होती है। इसके सूखे फूलों से देशी मदिरा बनती है। इसको पीकर लोग अक्सर अपनी थकान मिटाते हैं।
ग्रामीण व वनवासी लोग सूखे फूलों का संग्रहण भी करते हैं। जरुरत पड़ने पर इनका उपयोग आपातकालीन भोजन के रूप में भी किया जाता है। इसके कच्चे फलों की बनाई सब्जी पौष्टिक एवं स्वादिष्ट होती है। इसके पके फलों का गूदा खाने में मीठा व स्वादिष्ट होता है। इसके बीजों (डोरमा) का तेल त्वचा की सौन्दर्यता, खाद्य पदार्थों के तलने, साबुन बनाने, वनस्पति मक्खन बनाने इत्यादि हेतु काम में लिया जाता है। इसकी मजबूत लकड़ी घर के दरवाजे, फर्नीचर इत्यादि बनाने के काम आती है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सदाबहार पोषक
इसमें कोई संशय नहीं कि ग्रामीणों एवं वनवासियों को साल भर महुआ के पेड़ों से अतिरिक्त आय होती है। चूँकि महुआ भारतीय वनों का बेशकीमती एवं महत्त्वपूर्ण वृक्षों में से एक है जिससे सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों का राजस्व प्राप्त होता है। लोग इसकी सुखी लकड़ियाँ एवं पत्तियों को बाजार में बेचते हैं जिससे इनको दैनिक आमदनी हो जाती है।
साल भर रहता बेसब्री से इतंजार
इस समय आप देश प्रदेश के किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में निकल जाइए आपको एक खास खुशबू आकर्षित करेगी। ये महक होती है महुआ की। मध्यम आकार के पत्तों के साथ बड़े बड़े पेड़ों से महुआ टपकने का मौसम चल रहा है। ग्रामीण इलाकों में साल भर इस मौसम का बेसब्री से इंतजार रहता है। ग्रामीण पेड़ से गिरे महुआ को बीनने यानी एकत्र करने के लिए तत्पर रहते हैं। आदिवासी इलाकों में तो ये सीजन खासा महत्व रखता है क्योंकि आदिवासियों की रोजी रोटी का एक महत्वपूर्ण माध्यम है महुआ। एक एक फली उठाकर उसे एकत्र करना और फिर धूप में सुखाना काफी मेहनत का काम माना जाता है लेकिन आदिवासी समुदाय के लोग ख़ुशी से इसमें पसीना बहाते हैं इस उम्मीद के साथ कि इसे बेंचकर उनके जीवकोपार्जन का इंतजाम हो जाएगा।
अल सुबह शुरू होती है जद्दोजहद
महुआ बीनने की शुरुआत अल सुबह हो जाती है। गर्मी के इस मौसम में दोपहर होने तक तेज धूप व गर्म हवाएं दुश्मन बन जाती है इस काम में लगे लोगों के लिए। जंगलों में तो और दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सूर्य देव की तीखी निगाहों से तपते जंगल तन बदन को झुलसा देते हैं। जनपद के पाठा क्षेत्र के बीहड़ों जंगलों में बहुतायत पेड़ हैं महुआ के और सीजन शुरू होते ही इन इलाकों में ग्रामीणों आदिवासियों की चहलकदमी शुरू हो जाती है। हालांकि पिछले कई वर्षों से डकैतों की दहशत के कारण घने जंगलों में महुआ बीनने का काम नहीं होता था लेकिन अब दहशतगर्दों के ख़ात्मे के बाद ग्रामीण दूरदराज के बीहड़ों में भी निकल जाते हैं। हालांकि जंगली जानवरों का खतरा अब भी बरकरार है. वन विभाग ने ग्रामीणों को सावधान भी किया है।
इस तरह होता है व्यापार
महुआ को बाजार में 30 से 35 रुपये प्रति किलो के हिंसाब से बेंचा जाता है। हालांकि इसके थोक व्यापारी कम ही मिलते हैं फिर भी कस्बाई व ग्रामीण इलाकों के बाजारों में इसकी कीमत आज भी है। महुआ से तेल भी निकाला जाता है। आदिवासी कई इलाकों में लगने वाली साप्ताहिक बाजारों में जाकर थोक के भाव महुआ बेंचते हैं। एक खास बात यह कि वनोपज पर निर्भर रहने वाले आदिवासी दिन रात रखवाली भी करते हैं पेड़ों की। आपस में पेड़ बांट भी लिए जाते हैं।
औषधीय गुणों से भरपूर है महुआ
महुआ अपने औषधीय गुणों के कारण गांव देहात यहां तक कि ग्रामीण परिवेश से जुड़े लोगों के बीच आज भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दही व दूध के साथ महुआ खाने से शरीर हिष्ट पुष्ट बनता है। जोड़ों के दर्द में भी महुआ का सेवन व इसके तेल का प्रयोग काफी लाभप्रद माना गया है। हेल्दी फैट का अच्छा स्रोत है महुआ।