आत्माराम त्रिपाठी
एक समय था जब पत्रकारिता को मिशन के रूप में देखा जाता था जिसमें तपस्वी त्यागी बलिदानी लोगों की एक जमात थी।अंग्रेजी हुकूमत में तो इन महान पुरुषों ने क्रांति में क्रांतिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया अपने खून से अखबार को निकाला। देश आजाद हुआ साथ ही समय के अनुसार पत्रकारिता का स्वरूप बदलता गया सोच बदलती गई लोग बदलते गए। किंतु अगर कुछ नहीं बदला तो पत्रकारों का उत्पीडन हम आज इसी पर चर्चा करने वाले हैं ।यह वाकया 1985/86/से लेकर 1995के मध्य की है ।जब हम एक छोटे से गांव में मध्ययुग मे श्री संतोष निगम जी के सानिध्य में लिखना शुरू किया था जिन्हें हम प्यार सम्मांन से दादा कहकर संबोधित करते थे और हमारे कार्य को देखते हुए दादा ने एक वर्ष के अंतराल में गांव से उठाकर नगर, जिला, फिर उप संपादक पद पर नियुक्त किया। उसके पहले हमारे मध्ययुग के संपादक श्री सुरेश गुप्ता जी की बबेरू थाना प्रभारी अरूण शुक्ला के गुंडों के द्वारा हत्या कर दी गई पत्रकारिता जगत में एक उबाल आया जिसमें जनपद ही नहीं पूरे प्रदेश के पत्रकारों ने अन्दोलन चलाया दरोगा को सजा हुई हमारे साथी की बेवा पत्नी को सरकारी नौकरी मिली वहीं दूसरी ओर दरोगा भी हाईकोर्ट से बरी हुआ इस घटनाक्रम की आग ठंडी हुई ही थी कि कामता चित्रकोटी की हत्या कर दी गई। दस्युओं द्वारा संगमलाल शाहू की दोनों आंखों को फोड़ दिया गया तो पंकज सिंह के दोनों पैर तुड़वा दिये गये इसके बाद पुलिस दमनकारी चक्र के शिकार हुए कालिंजर एक्सप्रेस के प्रधान संपादक श्री अशोक निगम जिनका प्रेस उखाड़ दिया गया उस समय के पुलिस अधीक्षक सिध्दू पत्रकारों के दुश्मन बने बैठे हुए थे और अशोक निगम इन सबसे बेपरवाह फेंक इनकाउंटरो की जिसकी 56के आसपास गिनती थी की परत दर परत बखिया उधेड़ रहे थे जिसकी जांच सीबीसीआईडी द्वारा हुई और 56मे लगभग 46फेक इनकाउंटर पाये गये पर इस दौरान अशोक निगम के उन्ही फेंक इनकाउंटरो की लिस्ट में शामिल करने की पूरी कहानी उस समय के तत्तकालीन पुलिस अधीक्षक द्वारा किए जाने में कोई संकोच कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई जिसमें अशोक निगम के पक्ष में खुलकर सामने आए आज ब्रम्हलीन हो चुके इमानदारी की जीती जागती मिसाल जमुना प्रसाद बोस जी एवं जनसत्ता के बरिष्ठ संपादक श्री प्रभात जोषी ने उन्होंने अपना पूरा सहयोग दिया।उस दसक में हमारे बरिष्ठ साथियों में श्री सुधीर निगम, संतोष कुमार गुप्ता, अवधेश सिंह गौतम, अरुण खरे सूरज तिवारी।एंव हम उर्म साथी अशोक निगम राजकुमार मिश्र बागी, मुकुंद गुप्ता उत्तम सक्सेना,नीलू निगम, राजेंद्र शुक्ला जैसे कलम के धनी साथियों का साथ था सभी जुनूनी थे हर पल हर दिन कुछ नया लिखने का जुनून था ।प्रधान संपादक श्री संतोष निगम दादा सांयकाल एक दो घंटे के लिए आफिस आते हाल चाल लेते पर संस्थान साथियों को सौंपे हुए थे अखबार निकालने के लिए कागज है कि नहीं किसीने खाना खाया की नहीं कितना आय व्यय हुआ कोई मतलब नहीं किसने क्या लिखा कोई मतलब नहीं इतना भरोसा अपनी टीम पर उन्हें था। ऐसा नहीं की अखबारों में प्रतिद्वन्दिता नहीं थी थी उस समय कर्मयुग फिर मंदाकिनी धारा, त्रिसूल , दैनिक जागरण,आज,अमर उजाला,स्वतंत्र भारत, राष्ट्रीय सहारा, जैसे बड़े बैनर के अखबार थे जनपद में पत्रकारों के युनियन बने पर इतने बहुतायत के बाद संघर्ष के समय एक थे । और आज दुख होता है पीड़ा होती है कि हम हमारी लेखनी किस दिशा की ओर जा रही है आज ऐसी कोई जगह नहीं कोई नुक्कड नहीं बचा जंहा पत्रकार नहीं एक मोची से लेकर चाय पान समोसे बेचने वाला भी प्रेस कार्ड गले में डाले हैं।जिसे क सब्द का ज्ञान नहीं है वह भी क सब्द का इस्तेमाल कर रहा है जबकि क सब्द पत्रकारिता का मूल है जड है यही से शुरू होती है । लगता है हम भटक रहे हैं दिशा से बात कर रहे थे पत्रकारिता के बदलते स्वरूप की तो वैसे हम कयी प्रांतों में घूमे बरिष्ठ साथियों का सानिध्य प्राप्त हुआ कुछ सीखने का अवसर मिला। और आज जब हम अपनी इस बिरादरी को देखते हैं तो पाते हैं कि सबकी सोच अलग अलग है आपसी संवाद का अभाव है झूठा अहंम लेकर जी रहे हैं सभी ।तब खोज की जाती थी तहतक पहुंच कर वस्तुस्थिति से अवगत हो समाचारों का प्रकाशन होता रहा जिसमें कार्रवाई होती रही ।पर आज आगे बढ़ने की इस अंधी दौड़ में हम अपने पत्रकारिता के उस मुख्य मूल स्वरूप को छोड़कर आगे बढ़ रहें हैं जो पत्रकारिता जगत के लिए शुभ नहीं माना जा सकता।