शशि पुरवार
हर तरफ अफरा–तफरी मची हुई है। कोरोना का बढ़ता ग्राफ लोगों की सांसे हलकान कर रहा है तो वहीं भूख जानलेवा साबित हो रही है. इंसान भय से लड़ सकता है कोरोना से भी लड़ सकता है, लेकिन जालिम भूख से कैसे लड़े। पेट की जठर अग्नि चैन से सोने नहीं देती हैं। कोरोना की मार के साथ–साथ लोगों की जेब पर भी मार पड़ रही है।
देश की हालत गंभीर है लेकिन यहां भी सियासत जारी है। कभी मजदूरों पर सियासत तो कभी किसानों पर सियासत हो रही है। जनता त्रस्त
एक तरफ किसान अपनी फसलें, सब्जी व फलों की खरीदी ना होने से परेशान हैं तो दूसरी तरफ ठेकेदार मुंह मांगे दाम जनता से वसूल रहे हैं. अगर इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब देश में अराजकता फैल जाएगी। लोगों को पेट भरने के लिए पैसा चाहिए. कहीं लोग कोरोना से मर रहें हैं तो कहीं भूख मार रही हैं. प्राइवेट सेक्टर में पगार नहीं हो रही है। किराएदार है तो किराया देना मज़बूरी है,घर में बुजुर्ग बीमार है तो दवा लेनी ही पड़ेगी, गांव जाना है तो किराया देना ही होगा, सब्जी कितनी भी महंगी हो लेना मजबूरी है. जो बुजुर्ग के घर में अकेले है जिनकी पेंशन नहीं है, जिनका कोई नहीं है, वह उम्र के इस पड़ाव में कैसे जियें? जमा पूंजी लोगों की कब तक साथ देगी , जेब ढीली होती जा रही है। कोरोना आने से अन्य बीमारिया ख़त्म नहीं हुई है। डाक्टर मरीजों को देखने से बच रहें है , हर तरफ कोविड १९ का भय है।
कोरोना की मार से पूरा देश लड़ रहा है अर्थव्यवस्था से हर कोई झूझ रहा है , मध्यमवर्गीय व गरीब दोनों इसमें मारे जा रहें है। जनता को नजर अंदाज करना जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना है . यह जिंदगी को मौत के दरवाजे तक ले जा रहा है। अगर राहत पैकेज का फायदा लोगों तक पहुँचता तो इतनी अफरा–तफरी नहीं मचती। राहत पैकेज के लिए फॉर्म ऑनलाइन भराये जा रहें है , गांव में जिनके पास मोबाइल नहीं है ,या वह बुजुर्ग जो उम्र के इस पड़ाव में टेक्नोलॉजी समझने में असमर्थ है वे इसका लाभ कैसे लेंगे ? सरकार ने कहीं कहीं लोगों के खाते में १००० – २००० रूपए डाले है लेकिन यह कब तक काम आएंगे ? महंगी होती वस्तुएं जेब की सीवन उधेड़ने के लिए पर्याप्त है।
राहत पैकेज का पैसा कहां जा रहा है। जनता को उसके हाल पर ही छोड़ दिया गया है. पहले लोग सरकार के भरोसे संयम रखकर नियमों का पालन कर रहें थे, लेकिन भूख नियम कायदे नहीं देखती हैं। जब जनता को जरुरत है वहीं सरकार हाथ खड़े कर रही है.
समस्या गंभीर हैं, ऐसे में भी राजनीतिकरण हो रहा है. मिडिया अपने सरपरस्तों के अनुसार उसी भेड़ चाल में शामिल है। सरकार क्या कर रही है। महाराष्ट्र में बढ़ता संक्रमण का ग्राफ चिंताजनक है. भारत में इतनी बड़ी आबादी है, उतनी अस्पतालों में व्यवस्था नहीं है.
अर्थव्यवस्था को ठीक करना बहुत जरूरी है. देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए हमें जीवन को पटरी पर लाना होगा। देश की हालत गंभीर है लेकिन यहां भी सियासत जारी है। कभी मजदूरों पर सियासत तो कभी किसानों पर सियासत हो रही है। जनता त्रस्त है। व्यवस्थाएं टूटी हुई हड्डी के समान हो गई है. जीवन को पटरी पर लाने के लिए जीवन खतरे में आ गया है। मरता क्या न करता, जिंदगी मौत के रास्तों पर चल पड़ी है.
आगे आने वाले समय में महंगाई तेजी से बढ़ेगी. अभी लोगों ने कुछ नहीं कमाया है तो वे मुंह माँगे दाम लेकर कमाएंगे। सरकार को भी पैसा चाहिए तो पैसा कहां से आएगा? जनता की जेब से पैसा लेकर जनता को ही दिया जा रहा है। आगे भी आम आदमी यानि हर तरफ से जनता की जेब पर मार पडेगी. हर तरफ से जनता हार रही है. नौकरियां जा रही है. जनता का पैसा लेकर ही सरकार वह जनता के काम में लगा रही है लेकिन कहाँ है वह व्यवस्था ?
राहत पैकेज से किस किस को फायदा होगा ? अभी कोरोना है मौसम बदल रहा है तूफान आ रहा है. बारिश के मौसम में होने वाली आपदा को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। उसके बावजूद राजनीतिकरण हो रहा है
आदमी ही आदमी का दुश्मन बन रहा है. धूमिल की एक कविता याद आती है.
एक आदमी रोटी बेलता है,
दूसरा आदमी बस रोटी खाता है
तीसरा आदमी भी है जो रोटी से खेलता है.
तो वह तीसरा आदमी कौन है ? देश की संसद मौन है , भूख का राजनीतिकरण हो रहा है , गरीब के पेट से हर कोई रोटी सेक रहा है ,क्या वे भरे भरे पेट वाले होते हैं जिन्हे चाँद रोटी की तरह दिखाई देता है ? भूख पेट को गद्दार बना देती है। इस वाक्य में देश भक्ति कम नही है, पर गरीबी का दर्द कहीं ज्यादा है। इंसान दो जून रोटी की खातिर सारे अन्याय हँस कर सहता है।ऐसा प्रतीत होता है भूख का विकराल दानव ईमानदारी, सभ्यता व संस्कारों को निगलने लगा है।देश दुनिया में आज हर तरफ गिरती लाशें न जाने कौन से धर्म – कर्म की प्यासी है। यह कौन सी भूख है जो इंसानों को इंसानों के खून का प्यासा बना रही है। समाज, देश, समय में उपजी विकराल दूषित विचारों की भूख न जाने कौन से युग का निर्माण करेगी.