प्रवासियों की हकीकत
-अनिल अनूप
लुधियाना में बिहारी प्रवासी मजदूर हर काम में नहीं हैं. जैसे यहाँ के साइकिल उद्योग में उनका अनुपात उतना नहीं है जितना हौजरी में या लोहे के पुर्जे वगैरह बनाने में. रिक्शा चलानेवालों में भारी बहुमत में हैं, तो ठेला-रेहड़ी, छोटी दुकान लगाने के मामले में एकदम कम हैं. दिल्ली की तरह यहाँ की दुकानों पर सहायक के तौर पर प्रवासी मजदूरों को रखने का चलन अभी ज्यादा नहीं हुआ है.
दिल्ली से पंजाब की तरफ रेल या सड़क किसी से भी बढ़िए तो लगभग दो चौंकाऊ बातें दिखती हैं. दोनों तरफ दूर-दूर तक लहराते धान के खेत और उनकी खुशबू यह भ्रम पैदा कर सकती है कि कहीं धान उगाने, “भात” खानेवाले प्रदेश में तो नहीं पहुँच गए हैं. गेहूँ और रबी के इलाके का यह दृश्य चौंकाता है. जगह-जगह पम्प से पानी पटाते, खाद छींटते, धान रोपते-काटते लोगों पर भी गौर करिएगा तो वे भी पंजाब-हरियाणा के लम्बे-तगड़े लोग नहीं लगेंगे. धान के खेत तो दिल्ली से निकलते ही शुरू हो जाते हैं पर असली ‘धनहर’ इलाका पानीपत-करनाल-अम्बाला से शुरू होता है और लगभग पूरे ही पंजाब में यह दृश्य दिखता है.
विशेष अध्ययनवाले गाँवों के मजदूरों को उनके स्वर्ग लुधियाना में ढूँढ़ते-ढूँढ़ते जब यह लेखक उनके ‘क्वार्टरों’ पर पहुँचा तो लगा कि मुर्गी दड़बों को देखने-अनुभव करने का क्रम अभी नहीं रुका है. सात या आठ फुट लम्बे और इतने ही चौड़े कमरों की ठीक दड़बों जैसी पाँते इन जैसे मजदूरों के लिए भी बनवा रखी गई हैं. ये ‘क्वार्टर’ भी ऐसे ही दो पंक्तियोंवाले हैं. बीच में थोड़ी आँगननुमा लम्बी खाली जगह है. दो दर्जन कमरों के पीछे एक हैंडपम्प, एक शौचालय है. ज्यादा हैं तो उसी अनुपात में इन ‘सुविधाओं’ की संख्या भी ज्यादा है. अगर जगह कम पड़ रही हो तो कमरों को दो-तीन मंजिल तक उठा दिया गया है.
लुधियाना के बाबा दीप सिंह कॉलोनी में, जिसे स्थानीय लोग “भैया कॉलोनी” कहते हैं, ऐसे 108 कमरों के तिमंजिले बाड़े का सर्वेक्षण इस लेखक ने भी किया, पर बी.एम.एस. के स्थानीय मजदूर नेता रामकृष्ण आजाद ने बताया कि कंगनवाल रोड पर 422 कमरों का बाड़ा पूरे शहर में सबसे बड़ा है.
भाई दीप सिंह कॉलोनी, कंगनवाल रोड, गिल रोड, इंडस्ट्रियल एरिया, ट्रांसपोर्ट नगर, समराला चौक, फोकल प्वाइंट, हीरा नगर, मोती नगर, भगत सिंह कॉलोनी, शेरपुर, मुस्लिम कॉलोनी वगैरह में ऐसे ही बाड़े बने हैं. गैसपुरा से शिमलापुरी तक बसनेवाली नई बस्तियों में भी पुराने प्रवासी मजदूरों ने 35 वर्ग गज, 50 वर्ग गज जमीन लेकर कमरे डाले हैं. झुग्गियाँ डालकर रहने का क्रम अब शुरू हो रहा है और बढ़ता जा रहा है. पर अभी तक कम है.
बाड़ा या बाड़ शब्द हिन्दी में एकदम अलग मतलब बताता है. पंजाबी में मजदूरों वाली इस तरह की रिहाइश को बाड़ा या बाड़ कहते हैं. यह शब्द आज पहली बार नहीं आया है. जब खुद पंजाब के लोगों ने पिछली सदी के अन्त और इस सदी के शुरू में दक्षिण-पश्चिम में बननेवाली नहरों से जुड़ी कॉलोनियों में रहना शुरू किया तो वे खुद भी उसे बाड़ा ही कहा करते थे. भैया मजदूर इन्हें क्वार्टर कहते हैं.
जब वे क्वार्टर, ड्यूटी, ओवर टाइम, लंच, ऑफ जैसे शब्द कहते हैं तो इनका सिर्फ एक सामान्य-सा अर्थ नहीं रहता. उस अर्थ में तो इन छह-सात लोगोंवाले एक कमरे को क्वार्टर नहीं कहा जा सकता. इन शब्दों के जरिए ये लोग एक सांस्कृतिक फासले को भरने की कोशिश भी करते हैं. यह फासला शहर-गाँव, बिहार-पंजाब, अमीर-गरीबवाला तो है ही, अपने गाँव के बड़े लोगों और अपने बीच के अन्तर का भी है.
इन शब्दों को अगर वे उनके सही अर्थ में समझते तो उनको पाने की कोशिश भी करते. न्यूनतम मजदूरी, महँगाई भत्ता, प्राविडेंट फंड, ईएसआई, ग्रेच्यूटी, बोनस, छुट्टियाँ जैसी बुनियादी बातों की परवाह भी उन्हें नहीं होती. लुधियाना जैसे शहर में, जिसे पंजाब का मैनचेस्टर कहा जाता है, संगठित क्षेत्र में वर्षों से काम करने के बावजूद यह स्थिति थी.
गाँव में मजदूरों से मिलने के बाद लुधियाना का उनका पता और पहुँचने का निर्देश लेने के बावजूद उन्हें ढूँढ़ लेना आसान नहीं था. कभी लोधियों के दो सामंतों द्वारा सतलुज के पास बसाई गई “लोधियान” बस्ती आज पंजाब ही नहीं, पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत में दिल्ली के बाद सबसे बड़ा शहर बन गई है और 14 लाख प्रवासी मजदूरों के चलते पंजाब में उत्पादन का सबसे बड़ा ठिकाना. और इसमें बड़े-बड़े को जब अपनी पहचान बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर अनपढ़, पिछड़े, कमजोर, अकेले प्रवासी मजदूर को कौन पूछता है! अधिकांश पते किसी किराना दुकानदार या गली के डॉक्टर के मार्फत के होते हैं जिनकी सेवाएँ वे मजदूर लेते हैं. ये दुकानदार-डॉक्टर भी नाम और चेहरे, दोनों को एकसाथ देखे बगैर मजदूर को नहीं पहचान सकते. अपनी फैक्टरियों का पता ये लोग देते नहीं. सो दुकानदार-डॉक्टर को भी जब तक मजदूर के मूल जिले, उसके गाँव, उसके समूह, उसके काम के बारे में न बताया जाए, वे भी कोई मदद करने की स्थिति में नहीं रहते. जब इतने सारे विवरण और पृष्ठभूमि बताने पर उसको सही पते का अन्दाजा होता है तो वह आपको किसी बाड़े में भेज देगा या भिजवा देगा. उस बाड़े में अपने वांछित मजदूर का कमरा पता करने के लिए आपको फिर से यह सारी मशक्कत करनी पड़ती है.
उसके कमरे में पहुँचते ही कई धारणाएँ एकसाथ ध्वस्त हो जाती हैं. ठीक-ठाक कमाई करता प्रवासी मजदूर हर माह अपने गाँव में जितनी औसत रकम (8000 से 12000 रुपए) भेजता है, उससे इस लेखक को ही नहीं, किसी को भी यह लगेगा कि वह कम-से-कम इसकी दूनी रकम कमाता ही होगा. परदेस में रहना, खाना, पहनना, ओढ़ना, आना-जाना, लखुत-पानी (बीड़ी-खैनी), देन-लेन सब लगा ही रहता है और आदमी लाख कम खर्च करे, आठ-दस हजार से कम मे क्या रहेगा. अपनी कमाई और रहने के बारे में ये लोग गाँव में कुछ ऐसा ही बताते भी हैं. पर पहुँचते ही लगा कि अपनी कमाई के बारे में डींग हाँकने का हक सिर्फ शहरी और पढ़े-लिखे लोगों को ही नहीं है. गाँव में कमाई और काम के बारे में शेखी दिखाने के पीछे भी कहीं न कहीं गाँव के बड़े लोगों से फासले को कम करके दिखाने की प्रवृत्ति भी काम करती है (और इसी एहसास के साथ पंजाब में प्रवासी मजदूरों से जुड़े पहलुओं पर हुए शोध कार्यों की उस गड़बड़ी का पता भी चला जिसमें आम तौर पर मजदूर को ज्यादा मजबूत आर्थिक पृष्ठभूमि से आया बता दिया गया है. गाँव का आदमी कमाई से भी ज्यादा जमीन से अपनी प्रतिष्ठा को जोड़कर देखता है.)
उस कमरे में जब बैठने का आग्रह किया जाता है तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कहाँ-कैसे बैठा जाए. नीचे कुछ भी नहीं बिछा होता. जहाँ-तहाँ मुड़ी पड़ी बोरियाँ हैं या टाट, पैकिंग के काम आनेवाली पल्ली. पूरे के पूरे बाड़े (दो दर्जन-तीन दर्जन कमरोंवाले) में दो-तीन से ज्यादा खाट नहीं होंगी. कपड़ों के नाम पर जितने आदमी उतनी जोड़ी लुंगी तथा एकाध और कपड़ा. उसी में एक पहनना, एक ओढ़ना-बिछाना. रोज नहाते समय पहले को खंगाल लेना. बैठने के साथ ही जब आप परिचित होकर कमरे में रहनेवालों की संख्या और किराए के बारे में पूछिए तो मालूम होगा—किराया है तीन से साढ़े तीन सौ रुपए. 60 वाट के बल्ब से ऊपर का बल्ब लगे, पंखा लगे तो 200 रुपए महीने ऊपर से. रहने के मामले में लालाजी को बताएँगे तीन-चार, रहेंगे छह-सात जिससे प्रति व्यक्ति किराया कम पड़े. इतने लोग तो कमरे में सो भी नहीं सकते. सीधा-सा जवाब होता है कि बाहर या छत पर सो जाते हैं. हवा भी लगती है. शिफ्ट-ड्यूटी होती है तो सर्दियों में भी दिक्कत नहीं होती.
सुबह ही पेट भर लेना है
मुर्गे के बाँग देने के साथ ही उठ जाना है. रोटी बना लेनी है. जितने आदमी, उतने चूल्हे. नहा-धोकर भरपेट खा लेना है. चार-छह रोटी साथ ले लेनी है. ‘लंच’ के समय छोले, सब्जी कुछ लेकर रोटी खा लेते हैं. दूध कोई नहीं लेता-महीने में एकाध बार मांस-मछली हो गई तो बहुत है. देर रात को घर लौटने पर भात या खिचड़ी बनती है. जितना खाया गया, खा लिया बाकी नाली या कुत्ते को समर्पित किया. बारह-चौदह घंटे काम की थकान सब भुला देती है. छुट्टी का दिन हो तो ताश हुआ, कीर्तन गाया.
अब हर बाड़े में दो-एक परिवार भी दिखने लगे हैं. क्रम बदलता रहता है. पर अब कुछेक परिवार नियमित भी रहने लगे हैं. अपने गाँवों के मजदूरोंवाले गिल रोड के बाड़े में भी एक परिवार स्थायी रूप से रहता था, पर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश का है और परिवार का मुखिया फल का ठेला लगाता है.
पूरे लुधियाना शहर के सारे प्रवासी मजदूर इसी तरह नहीं रहते. कुछ छोटे प्लाट लेकर मकान बनाकर भी रहने लगे हैं. कुछ ने झुग्गियाँ डालनी शुरू कर दी हैं. कुछ मालिकों की फैक्टरियों-दुकानों में भी रह लेते हैं. पर अधिकांश बाड़ों में ही रहते हैं.
अनुपात और संख्या के हिसाब से देखें तो जमीन लेकर बसनेवालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश मैदानी दक्षिणी बिहारवाले ज्यादा निकलेंगे. झुग्गियों में राजस्थानी मजदूर होंगे जो आमतौर पर परिवार के साथ ही घर से निकलते हैं. बाड़ा या क्वार्टर वाली व्यवस्था में ज्यादातर बिहारी हैं.
और ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि जिस दिन इन बाड़ों में ज्यादा परिवार और उनके साथ बकरी-सूअर जैसे जानवर भी आएँगे उसी दिन ये महामारियों का डेरा बन जाएँगे. अभी तो सफाई-नाली, फ्लश-शौचालय, स्नानघर वगैरह की व्यवस्था न होने पर भी सिर्फ अकेले मर्दों के रहने से थोड़ी-बहुत राहत रहती है. दिन भर घर खाली हो, बाड़ा खाली हो तो हवा-सूरज ही बहुत सफाई कर देते हैं.
बाबा दीप सिंह कॉलोनी के जिस 108 कमरोंवाले वार्ड की चर्चा पहले की गई है उसमें करीब सवा चार सौ लोग थे. चारों ओर से घिरे इस बाड़े की छत पर दस शौचालय और दस हैंडपम्प थे. खुला होने से मजदूर शौच वगैरह के लिए बाहर भी जा सकते थे. इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित 300 कमरों से अधिक का बाड़ा जवाहर बिल्डिंग, जो मुश्किल से पाँच सौ वर्ग गज के प्लाट पर बना होगा, मजदूरों के सुबह काम पर निकलते-निकलते कीचड़ से पूरा सन जाता है जिसमें मल-मूत्र, कचरा तो होता ही है, रात में बचे खाने का भी अपना हिस्सा रहता है. इसमें चार पैसे का डीडीटी कौन डालेगा, कोई नहीं जानता. सो ऐसे बाड़े को सूरज न साफ रखे तो क्या होगा?
आप चाहे जिस बाड़े में जाइए, जिस बस्ती में जाइए, इन कमरों के मालिक नहीं मिलेंगे. ये अक्सर बड़े लोग हैं जिन्होंने बाड़ों का चार्ज आमतौर पर किरानावालों-राशनवालों को सौंप दिया है और वे हर महीने उन्हीं से पूरी रकम वसूल लेते हैं. किरानावालों का स्वार्थ है कि जो बाड़ा उनके नियंत्रण में रहता है उसके सभी किराएदारों को उनकी दुकान से ही राशन और अन्य सामान लेना अनिवार्य होता है. इसमें गड़बड़ का मतलब है, अगले ही दिन कमरा छोड़ना. अनिवार्यता में मुनाफाखोरी की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है. जिस 108 कमरेवाले बाड़े का जिक्र पहले किया गया है वहाँ कुल 413 लोग रहते मिले और सिर्फ इन सबकी खरीदारी से ही कितना मुनाफा एक जगह से होता होगा, यह समझा जा सकता है. बीस साल पहले यहाँ वही चावल नौ रुपए किलो था जो वैसे साढ़े सात-आठ रुपए में मिल रहा था. आज बाजार में चावल 28-30 रुपए है तो यहाँ 35 से कम नहीं है. खुले बाजार में जब मिट्टी का तेल 8 रुपए लीटर था तो यहाँ दस रुपए लीटर. आज यह भी 65 रुपए लीटर है जो एक सप्ताह चल जाता है. शायद ही किसी मजदूर का राशन कार्ड बना होगा, सो राशन की दुकान से नियंत्रित मूल्य पर सामान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता.
अभी कुछ दिन पहले ही कोलकाता में ओवरब्रिज के गिरने से 22 लोगों के मरने की खबर आयी थी. मरनेवालों में ज्यादातर मजदूर थे. इनमें से एक उत्तर प्रदेश निवासी शंकर पासवान भी था, जो मोटिया का काम करता था. वह होली में अपने घर इसलिए नहीं गया, ताकि वह कुछ दिन और काम करके बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा कर सके. यह हमारे देश के मजदूरों की आम कहानी है.
कभी खदानों में दब कर उनके मरने की खबर आती है, कभी कारखानों में अपंग हो जाने की, तो कभी फुटपाथ पर रईसों की गाड़ियों से कुचलने की. जब मजदूरों का आक्रोश फूटता है, तो सिर्फ मुआवजे की घोषणा होती है. कहने को तो मुआवजा मृतक के परिजनों की सांत्वना के लिए होता है, लेकिन आज यह वास्तव में मजदूरों के मूलभूत प्रश्नों से पीछा छुड़ाने का जरिया बन गया है.
किसी आकस्मिक दुर्घटना पर दलीय नेताओं की भाषणबाजी होती है और मुआवजे की राशि सौंपते वक्त फोटो खिंचवा कर वे पुण्य कमाने की मुद्रा में आ जाते हैं. क्या मजदूर होने का इतना ही अर्थ है? क्या मजदूर सिर्फ दूसरों को सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए ही होते हैं? क्या श्रमिकों और उनके श्रम के प्रति समाज या राज्य की कोई नैतिक व वैधानिक जिम्मेवारी नहीं है? मार्क्स और एंजेल्स ने पूंजीवादी सामाजिक ढांचे का विश्लेषण करते हुए कहा था कि मजदूरों को मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी मजदूर की हैसियत से मजदूरों के अस्तित्व मात्र को बनाये रखती है, अर्थात् उन्हें जीवन जीने भर की पगार मिलती है. वे मजदूर बने रहते हैं और एक वर्ग के लिए सुविधाओं का उत्पादन करते रहते हैं. जब समाजवादी समाज के निर्माण की परिकल्पना की गयी, तो इस संबंध को समाप्त करने की बात सामने आयी और दुनिया भर में मजदूरों ने अपने हित के लिए क्रांतिकारी संघर्ष किये. उन्होंने काम के घंटे को निश्चित कराया, अपने परिवार के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास की मांग की, यूनियन बनाने और हड़ताल करने का अधिकार हासिल किया.
रूस में हुए मजदूरों और किसानों के इस तरह के संघर्ष को मैक्सिम गोर्की ने अपने उपन्यास ‘मां’ में जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है. भारत में भी आजादी के बाद समाजवादी ढांचे को स्वीकार किया गया और सार्वजनिक उपक्रमों के माध्यम से मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने का प्रयास किया गया. लेकिन यह अधूरा प्रयास था. आजादी के बाद राज्य द्वारा जिस मात्रा में सार्वजनिक क्षेत्रों में रोजगार सृजित किये गये, उससे कई गुना ज्यादा यहां की जनसंख्या बेरोजगार थी, जो अपनी जीविका के लिए असंगठित क्षेत्रों में जाने को विवश हुई. नब्बे के दशक तक आते-आते देश में मजदूरों का सवाल धीरे-धीरे परिदृश्य से बाहर होता चला गया. अब चुनावों में भी मजदूरों के हितों की बात राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में नहीं होती है. अब तो संगठित क्षेत्रों में भी मजदूरों की स्थिति अच्छी नहीं रह गयी है. वैश्वीकरण के इस दौर में विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम पर मजदूरों के प्रश्न को अप्रासंगिक बना दिया गया है. ऐसी परिस्थिति में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हितों की बात भला कौन करेगा? अब तो सरकारी संस्थाओं और सार्वजनिक उपक्रमों में भी ठेके पर ही मजदूर रखे जा रहे हैं. ठेके पर मजदूरी श्रम के शोषण का सबसे क्रूरतम आधुनिक तरीका है. ठेके पर मजदूर उसी तरह से रखे जाते हैं जैसे दास युग में दासों को जीने भर खाना मिलता था. ठेके की व्यवस्था ने श्रम के प्रति व्यक्त किये जानेवाले उस नैतिक दायित्व को खत्म कर दिया है, जिसके तहत श्रमिक और उसके परिवार के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास के न्यूनतम व्यवस्था की बात थी. आज मजदूर बेहद ही खतरनाक परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं, लेकिन उनके लिए जीवन की आधारभूत संरचनाओं और सुरक्षा की कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है.
वैश्वीकरण के दौर में सारी चीजें चमक रही हैं, लेकिन मजदूरों के चेहरे का लोच गायब हो रहा है. बाजार ने श्रम और श्रमिकों की महत्ता को अपने विज्ञापनों से ढंक लिया है. आज भी मजदूर अपनी मूलभूत जरूरतों और अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं. आज एक ओर भवन निर्माण, सड़क निर्माण, छोटी-बड़ी प्राइवेट फैक्टरियों, मिलों और खदानों में बहुत बड़ी संख्या में लोग ठेके पर मजदूरी करने के लिए विवश हैं, तो वहीं दूसरी ओर, नगरों-महानगरों में दूसरों के घरों, गलियों, नालियों में दिहाड़ी पर काम करने को विवश हैं. विभिन्न क्षेत्रों में असंगठित रूप से बिखरे मजदूर या तो श्रम कानून की परिधि से बाहर हैं या बाजार और निवेश के नाम पर श्रम कानून प्रभावहीन हैं.
आजादी की आधी सदी बाद भी मजदूरों की स्थिति दयनीय है. वे रेल के जनरल डब्बों में सवार होकर हजारों मील की अनिश्चितता भरी यात्राएं करते हैं और खुद के श्रम को प्रतिकूल परिस्थितियों में बेचने को मजबूर होते हैं, जहां न उनके जीवन की न्यूनतम व्यवस्था होती है, न ही उनकी सुरक्षा निश्चित होती है. न ही उनकी मजदूरी इतनी होती है कि वे जीवन की बेहतर परिस्थितियों को खरीद सकें.
यह श्रम या श्रमिक की स्वाभाविक स्थिति नहीं है, बल्कि यह विकास के पूंजीवादी ढांचे का स्वाभाविक लक्षण है. नगरों में पूंजी और बाजार का केंद्रण गांवों से पलायन को स्वाभविक रूप से जन्म देता है. पूंजीवाद के इस लक्षण से निबटे बिना ‘श्रमेव जयते’ की बात असंगत है.
मनरेगा एक अच्छा प्रयास है, लेकिन यह तब तक एकांगी है, जब तक इसके लाभ के रूप में मजदूर अपनी वास्तविक हैसियत से बाहर नहीं निकल जाते हैं. यह तभी संभव है, जब मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य व सुरक्षा की गारंटी भी हो. समाज में श्रम और श्रमिकों की जरूरत हमेशा बनी रहेगी, लेकिन मजदूर होने का अर्थ यह नहीं है कि वह सिर्फ दूसरों के लिए सुविधाओं का उत्पादन करता रहे और खुद अभाव व अपमान झेलता रहे. जब तक मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के अतिरिक्त जीवन की आधारभूत सुविधाओं की व्यवस्था नहीं होती, तब तक न हादसों की अमानवीयता को कम किया जा सकता है और न ही समाज में श्रम के प्रति उचित सम्मान का नजरिया विकसित हो सकता है.
प्रवासी मजदूर बनाम सच्चे सर्वहारा
मज़दूरों का प्रवासी होना (‘माइग्रेशन’, आप्रवास या प्रव्रजन) पूँजीवाद की आम परिघटना, लक्षण और परिणाम है। यूँ तो ज़्यादातर औद्योगिक मज़दूर या अन्य शहरी मज़दूर भी ऐसे ही लोग हैं जो (या जिनकी पूर्ववर्ती पीढ़ियाँ) कभी न कभी गाँव से प्रवासी होकर शहर आये थे। धीरे-धीरे वे किसी एक शहर या औद्योगिक क्षेत्र में क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी ढंग से बसायी गयी मज़दूर बस्ती में झुग्गी या कोठरी ख़रीदकर किराये पर रहने लगे। इनमें से कुछ कुशल या अर्द्धकुशल मज़दूर हो गये। कुछ के बी.पी.एल. राशन कार्ड और पहचानपत्र भी बन गये। कुछ के ई.एस.आई. कार्ड भी बन गये। हालाँकि ये सुविधाएँ भी बहुत कम को ही नसीब हुईं। छँटनी, तालाबन्दी या बिना किसी ठोस वजह के नौकरी से कभी भी निकाल दिये जाने की तलवार इनके सिर पर भी लटकती रहती है। लेकिन एक ठौर-ठिकाना और आसपास अपने ही जैसों के बीच जान-पहचान का दायरा ऐसे मज़दूरों को नयी नौकरी ढूँढ़ने में भी काफी मदद करते हैं। रहने का कोई स्थायी ठौर और नौकरी का कोई सुनिश्चित बन्दोबस्त नहीं होने के कारण प्रवासी मज़दूर जीने और काम करने की सर्वाधिक असुरक्षित, अनिश्चित और नारकीय स्थितियों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। पूरी दुनिया में, उन्नत पूँजीवादी देशों से लेकर भारत जैसे पिछडे पूँजीवादी देशों तक प्रवासी मज़दूरों की कमोबेश एक सी ही दुर्दशा है वे सबसे सस्ती दरों पर अपनी श्रम शक्ति बेचने वाले, सबसे नारकीय परिस्थितियों में रहने और काम करने वाले, सर्वाधिक असुरक्षित उजरती ग़ुलाम होते हैं।
यूँ तो पूँजी हमेशा से लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर करती रही है ताकि उनकी श्रम शक्ति को निचोड़कर वह लगातार अपनी वृद्धि कर सके। सामन्तवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के साथ, ज़मींदार की ज़मीन से बँधे मज़दूर ”मुक्त” होकर कारख़ानों के मज़दूर बने। छोटे मालिक किसान भी पूँजी की मार से उजड़ने लगे। उनमें से कुछ ग्रामीण सर्वहारा बने, कुछ शहरों में प्रवास करके औद्यौगिक सर्वहारा बन गये और कुछ सीज़नल सा अस्थायी मज़दूर के तौर पर शहरों में आकर काम करने लगे। खेती-बाड़ी का पूँजीवादीकरण जहाँ-जहाँ सापेक्षत: तेज़ हुआ, वहाँ-वहाँ मज़दूरों की माँग बढ़ी, पर जल्दी ही मशीनीकरण ने उन्हें वहाँ भी काम से निकाल बाहर किया। ‘जीवित श्रम’ का स्थान ‘मृत श्रम’ ने ले लिया। यही प्रक्रिया शहरों में भी जारी रहती है। उत्पादन के किसी भी सेक्टर में नयी मशीनें आती हैं और मज़दूर काम से बाहर कर दिया जाता है। यही नहीं, मुनाफे की अन्धी हवस और पूँजीवादी उत्पादन की अराजकता जब अतिउत्पादन और मन्दी का दौर लाती है तो पूँजीपति पहला काम यही करता है कि छँटनी और तालाबन्दी करके मज़दूर को सड़क पर ढकेल देता है। बेघर-बेदर मज़दूर फिर किसी और उद्योग या इलाक़े में काम ढूँढ़ने निकल पड़ता है। इस तरह मज़दूर पिछडे उत्पादन क्षेत्र (कृषि और छोटे उद्यमों) से उन्नत उत्पादन क्षेत्रों की ओर आप्रवास करता है और फिर अधिक मशीनीकरण वाले उन्नत क्षेत्रों से कम मशीनाकरण वाले उत्पादन क्षेत्रों की ओर जाता रहता है। बड़ी-बड़ी औद्योगिक अन्य निर्माण परियोजनाओं और खनन परियोजनाओं में लाखों की तादाद में मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है और प्रोजेक्ट ख़त्म होते ही यह सारी आबादी नये काम की तलाश में निकल पड़ती है। ‘लार्सन एण्ड टयूब्रो’ और ‘नवयुग’ जैसी पचासों कम्पनियाँ हैं जो कोई भी प्रोजेक्ट (जैसे ‘दिल्ली मेट्रो’ या कोई बाँध या फैक्टरी या सड़क परियोजना) लेते समय हज़ारों (कभी-कभी लाखों) मज़दूर भरती करती हैं और प्रोजेक्ट समाप्त होते ही उन्हें निकला देती हैं। बिल्डर कम्पनियाँ भी इसी प्रकार काम करती हैं। मेण्टेनेंस जैसे काम करने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ भी अपने 90-95 प्रतिशत मज़दूरों को (थोड़े से कुशल अनुभवी लोगों को ही एक हद तक स्थायित्व प्राप्त होता है) कभी स्थायी नहीं करतीं। जहाँ जैसा ठेका मिलता है, उसी हिसाब से निकालने और भर्ती करने का काम होता रहता है। इस तरह मज़दूरों की एक भारी आबादी कहीं स्थिर होकर रह नहीं पाती। जो सीज़नल मज़दूर कुछ दिनों के लिए गाँव से शहर आते है, उनका भी जीवन प्रवासी मज़दूरों का ही होता है।
काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।
पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।
प्रवासी मज़दूर वे सच्चे सर्वहारा हैं, जिनके पास खोने को कुछ भी नहीं होता। सचमुच उनका कोई देश, शहर, इलाक़ा नहीं होता। अपनी श्रमशक्ति बेचकर वे जीते हैं क्योंकि उनके पास ज़्यादातर, रस्मी तौर पर भी और कुछ भी नहीं होता। उनकी संख्या आज भारत में भी सबसे अधिक है और पूरी दुनिया में भी। हर जगह उनकी एक समान स्थिति है। आप्रवासन केवल एक देश के भीतर नहीं है, बल्कि देश के बाहर भी होता है। हालाँकि साम्राज्यवादी देश नहीं चाहते कि बड़े पैमाने पर पिछड़े देशों के मज़दूर उनके देशों में जायें, क्योंकि तब उन्हें उनको (अपने देश के मज़दूरों के मुक़ाबले काफी कम होते हुए भी) ज़्यादा मज़दूरी देनी पड़ती है। इसलिए वे चाहते हैं कि पिछड़े देशों में ही पूँजी लगातार सस्ती से सस्ती दरों पर श्रमशक्ति को निचोड़ा जाये। ऐसी बहुतेरी तमाम प्रत्यक्ष-परोक्ष बन्दिशों के बावजूद जो भारतीय मज़दूर दूसरे देशों में जाकर काम करते हैं उन्हें अपने परिवारों को पैसे भेजने के लिए नारकीय गुलामों का जीवन बिताना पड़ता है। उन्हें भेजी हुई विदेशी मुद्रा से भारत सरकार को अपने विदेश व्यापार के चालू खाते और विदेशी मुद्रा भण्डार की स्थिति मज़बूत करने में सर्वाधिक मदद मिलती है, लेकिन भारतीय कामगारों के हितों की रक्षा के लिए यह एक भी क़दम नहीं उठाती क्योंकि यह सरकार उन भारतीय पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है जो विश्व पैमाने की लूट में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार हैं।
दिलचस्प बात यह है कि भारत में भी नेपाल और बंगलादेश से आकर जो लाखों ग़रीब मेहनतकश महज़ दो जून की रोटी के लिए काम करते हैं, उनके लिए श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता, सबसे कम मज़दूरी पर वे सबसे कठिन व अपमानजनक काम करते हैं, सामूहिक सौदेबाज़ी की उनकी कोई ताक़त नहीं होती, वे नारकीय जीवन बिताते हैं तथा अक्सर घृणित नस्ली, धार्मिक और अन्धराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों का सामना करते हैं। पूँजीपति इसका लाभ उठाकर उनका और अधिक शोषण करते हैं और भारतीय मज़दूरों के दिलों में यह बात बैठाने की कोशिश करते हैं कि इन ”बाहरी लोगों” की वजह से उनके रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि या तो मज़दूरों पर दबाव बनाने के लिए रोज़गार की कमी का हौव्वा खड़ा किया जाता है या फिर मन्दी और बेरोज़गारी की जो भी स्थिति होती है उसका कारण कामगारों की संख्या की बहुतायत नहीं बल्कि पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली के ढाँचे में मौजूद होता है। पूँजीपति वर्ग अपने दुष्प्रचार के द्वारा मज़दूरों की श्रम शक्ति कम दरों पर ख़रीदने के साथ ही मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता को तोड़ने और उन्हें आपस में ही लड़ाने का भी काम करता है।
दिल्ली प्रेस के सरस सलिल जुलाई द्वीतीय 2019 अंक मे प्रकाशित ।