रामेश्वर गुप्ता
शिक्षा सत्र 2019-2020 में कक्षा 10 वीं और 12 वीं के परिणामों ने विद्यार्थियों के साथ ही साथ गुरुजनों को गौरवान्वित किया है। सरकारी स्कूलों के बच्चों ने मेरिट लिस्ट में स्थान बनाकर बता दिया है कि सरकारी स्कूल किसी भी मामले में निजी स्कूल से कम नहीं है। निःसंदेह सरकारी स्कूलों में विभिन्न मापदंडों से चयनित उच्चयोग्यता वाले शिक्षकों की ही भर्ती होती है। सरकार ने इन शिक्षकों के खोये मानसम्मान को पुनः लौटाया और देखिए स्कूल के इन प्रतिभावान शिक्षकों ने अपना सब कुछ स्कूलों को सौंप दिया। सरकारी स्कूलों के परीक्षा परिणाम ने आज फिर हम सबके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को वापस लौटाया है।
1994-1995 में अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार के अदूरदर्शी नीतियों के चलते शिक्षा और शिक्षकों के मानसम्मान को बहुत ठेस लगी। राजस्व बचाने के फेर में नौनिहालों के भविष्य बनाने वालों के जिंदगी और आत्मसम्मान की धज्जी उड़ा दी गई। शिक्षा जगत में शिक्षाकर्मी नामक पद स्थापित कर बेहद कम मानदेय और असुरक्षा स्थापित कर हजारों और लाखों शिक्षाकर्मी की भर्ती की गई। बेरोजगारी की मार सहते पढ़े लिखे नौजवानों ने भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए शिक्षाकर्मी बनने में अपनी सहमति दे दी। पर सरकार तो जैसे इनके मानसम्मान के खिलवाड़ में कोई कोर कसर छोड़ना ही नहीं चाहती थी। बेहद कम मानदेय में दूरदराज के स्कूलों में सेवा देते इन शिक्षाकर्मियों को कई कई महीनों तक वेतन ही नहीं मिलता था। उधार में जीवनयापन करने वाले इन गुरूओं को जीवन चलाने के लिए लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ गये,या अन्य कोई दूसरा काम करना पड़ा। इन शिक्षाकर्मियों को कोई सुविधा भी नहीं दी गई। ना तो छुट्टी,ना स्थानांतरण,ना पेंशन,ना भविष्य की सुरक्षा। बेहद असुरक्षित माहौल में काम करते इन शिक्षकों को आठ आठ महीनों तक वेतन का ना मिलना इनके मनोबल को तोड़ने का काम किया। अब आप स्वयं बताइये कि जिस व्यक्ति के पेट में अन्न नहीं तो कर्तव्य और विद्या की बात बेमानी लगती है।
समय के साथ इन शिक्षाकर्मियों के शोषण और मांग की एक नई धारा निकल पड़ी। शासन अपने कठोर हथकंडे अपनाती रही ,शिक्षक आंदोलित होते रहे। अपमानित शिक्षक अपने दुखों और भावों को मन में छुपाकर स्कूलों में अपनी सेवा देते रहे। निश्चित रूप से ऐसे कठिन वर्षों में जब शासन आपके सम्मान को चोटिल करती रही, लाठी चार्ज कर जेल में भरने,निलंबन करने नौकरी से निकालने का काम करती रही, पालकों,अभिभावकों और प्रदेश की मीडिया ने अभूतपूर्व रूप से इन पीड़ित शिक्षाकर्मियों के पक्ष में मजबूती से खड़े होकर इनका हौसला बढ़ाया।
नीति निर्धारकों के मकड़जाल और शोषित शिक्षकों के बीच बढ़ती खाई समय के साथ धीरे धीरे कम होनी शुरू हुई। सरकार को देर से ही सही सरकारी स्कूलों की स्थिति का वास्तविक कारण समझ में आने लगा । कई कई वर्षों के संघर्ष और शिक्षाकर्मियों के बदलते नाम और सुविधाओं के साथ ही देर से ही सही इन हताश शिक्षकों के चेहरे में मुस्कान और गौरव लाने का काम शुरू हुआ। शिक्षकों को उसका सही नाम और सम्मान वापस किया गया और इसी के साथ ही शुरू हुआ सरकारी स्कूलों के पुनर्स्थापन का काम।
भले ही शिक्षकों के सभी मांग अभी पूरे नहीं हुए हैं फिर भी पहले से अधिक स्वाभिमान की जिंदगी जी रहे शिक्षकों ने इस उपकार को भूला नहीं।उन्होंने पूरे तन मन और मनोयोग से स्कूल में अपना सब कुछ झोंक दिया। परिणाम सामने हैं आज फिर सरकारी स्कूल सफलता के नये झंडे गाड़ रहे है। शिक्षक को राष्ट्रनिर्माता कहा जाता है ये शिक्षक राष्ट्रनिर्माण में लग गये हैं,जरूरत है इनके शेष मांगों को पूरा करने का।असुरक्षित भविष्य की चिंता बनी हुई है,62 वर्ष तक सरकारी सेवा करनेवाले इन शिक्षकों को शेष जीवन सम्मान से जीने के लिए पेंशन का प्रावधान होना चाहिए। असामयिक मृत्यु पर उनके आश्रित को तत्काल अनुकंपा नियुक्ति दिया जाना चाहिए, सभी शिक्षकों को क्रमोन्नति और पदोन्नति का अवसर मिलना चाहिए। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन वास करता है। भविष्य की चिंताओं से मुक्त कर्मचारी भी अपना 100% देने के लिए कटिबद्ध रहेगा।
रामेश्वर गुप्ता,बिलासपुर
24 जून,2020