मोहन द्विवेदी
केंद्र सरकार द्वारा लाये गये कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ लामबंद किसान संगठनों के साथ कई दौर की वार्ता विफल होने के बाद अब केंद्र सरकार की तरफ से लचीला रुख अपनाते हुए नयी पहल हुई है। जिसे किसान संगठनों के नेताओं ने सिरे से खारिज कर दिया है और तीनों कृषि सुधार कानूनों को निरस्त करने की मांग दोहरायी है। सरकार के नीतिगत फैसलों पर बल देते हुए बृहस्पतिवार को आयोजित प्रेस कानफ्रेंस में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि किसान सरकार के प्रस्तावों पर फिर से विचार करें। उन्होंने एमएसपी पर आश्वासन देते हुए किसानों से बातचीत के लिये हर वक्त दरवाजे खुले होने की बात कही। केंद्र के नये प्रस्तावों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लिखित आश्वासन देने और निजी मंडियों में कृषि उपजों पर समान कर लगाने का प्रस्ताव दिया गया था। सरकार ने सुधार कानूनों से जुड़ी किसानों की अन्य आशंकाओं को भी दूर करने का प्रयास किया है, जिनको लेकर किसान विरोध जताते रहे हैं। कॉरपोरेट फार्मिंग से जुड़ी कुछ शंकाओं को दूर करने का प्रयास करते हुए सरकार का कहना है कि खेती के लिये किसान की जमीन लेने वाली कोई कंपनी जमीन पर कर्ज नहीं ले सकेगी। सरकार किसी कृषि भूमि विवाद पर दीवानी अदालत में अपील हेतु संशोधन के लिये भी तैयार है। सरकार ने किसानों को आश्वस्त करने का प्रयास किया है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े प्रावधानों को और स्पष्ट किया जा सकता है। साथ ही यह भी कि बिजली बिल भुगतान की व्यवस्था में भी कोई बदलाव नहीं किया जायेगा। इस बाबत समाधान हेतु अध्यादेश के विकल्प का भी जिक्र है लेकिन किसान संगठनों ने सरकार के प्रस्तावों को न केवल सिरे से खारिज किया है बल्कि आंदोलन को और तेज करने की बात कही है। साथ ही दिल्ली-जयपुर व दिल्ली-आगरा हाईवे को जाम करने और चौदह दिसंबर को देशव्यापी प्रदर्शन करने की चेतावनी दी है।
वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिये फिलहाल तैयार नजर नहीं आती। लेकिन दिल्ली के दरवाजे पर लगातार दो सप्ताह से जारी किसान आंदोलन और इसके समर्थन में विपक्षी राजनीतिक दलों शासित राज्यों में आंदोलन की सुगबुगाहट ने केंद्र सरकार की चिंताएं बढ़ाई हैं। वहीं विदेशों में पंजाबी अस्मिता से जुड़े लोगों के किसान आंदोलन के समर्थन में खुलकर आने का भी अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। निस्संदेह कोरोना संकट के बीच ठंड में किसानों का आंदोलित होना अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसे में न तो राजहठ से बात बनेगी, न किसान हठ से। इसमें दो राय नहीं कि किसान आंदोलन का अपना तार्किक आधार है, लेकिन आंदोलन की तपिश में रोटी सेंकने वाले राजनीतिक दलों व संगठनों की भी कमी नहीं है। निस्संदेह अब तक किसान आंदोलन बेहद संयमित और शांतिपूर्ण रहा है। ऐसे में केंद्र सरकार का भी दायित्व बनता है कि मिल-बैठकर समस्या का शीघ्र समाधान निकालने का प्रयास करे। ऐसा करना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है लेकिन सरकार की जिम्मेदारी कुछ ज्यादा है, क्योंकि किसान आंदोलन से सामान्य जनजीवन भी बाधित होता है। मंगलवार की अनिर्णायक बैठक, बुधवार की आधिकारिक वार्ता स्थगित होने और सरकार के नये प्रस्तावों को किसान संगठनों द्वारा खारिज किये जाने के बाद नये सिरे से समाधान की कोशिश की जानी जरूरी है। सबसे महत्वपूर्ण है कि दोनों पक्ष विश्वास बहाली के प्रयास करें। भरोसे का संकट वार्ता में बड़ा व्यवधान है। सरकार किसानों की चिंताओं को दूर करने का भरोसेमंद विकल्प दे। वहीं सत्तारूढ़ दल के नेताओं के बयानों में भी संयम की जरूरत है। पंजाब के किसान राज्य में स्थापित एक मजबूत सरकारी खरीद प्रणाली को लेकर आशंकित हैं।ऊ सरकार को महसूस करना चाहिए कि हरित क्रांति का अगुआ किसान आज घाटे की खेती के संकट से जूझ रहा है। सरकार यह भी महसूस करे कि कोरोना संकट के दौरान कृषि क्षेत्र ही था, जिसने न केवल आर्थिक संकट से देश को उबारा बल्कि देश की खाद्य शृंखला को मजबूती भी दी।