उत्तराखंड ; जब प्रकृति का तांडव शुरू होता है तो मनुष्य नाचना भूल कर स्तब्ध हो कर केवल प्रार्थना ही करता है क्योकि तब उसे अपने कुकर्म और प्रकृति से छेड़ छाड़ याद नहीं रहता है | देखा जाए तो उत्तराखंड में बारिश के रूप में आई इस तबाही की वजह विकास के नाम पर पर्यावरण और पहाड़ों से बड़े पैमाने पर हो रही छेड़छाड़ का नतीजा भी है। इसके चलते प्रदेश को बेमौसम बारिश और भूस्खलन का शिकार होना पड़ता है। लगातार भूस्खलन और मलबा जमा होने के चलते उत्तराखंड में रास्तों के बंद होने की कई खबरें इस बरसाती मौसम में आ चुकी हैं। चमोली जिले में चीन बार्डर के साथ जुड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग दो सप्ताह से बंद है। पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ा दिया है। वहीं गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए भी पहाड़ को ही निशाना बनाया जा रहा है। हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप के जल का मुख्य आधार है। यदि नीति आयोग के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसद जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्र कम हो रही है। उत्तराखंड की बात करें तो अक्टूबर में यहां इतनी बारिश पहले कभी रिकार्ड नहीं की गई। मौसम विभाग के अनुसार यह आल टाइम रिकार्ड है। एक अक्टूबर से अब तक उत्तराखंड में औसतन 400 मिमी से अधिक बारिश हो चुकी है, जबकि इससे पहले वर्ष 2009 में यह आंकड़ा 170 मिमी के आसपास था। आमतौर पर अक्टूबर में प्रदेश में करीब 30 मिमी बारिश होती है।
उत्तराखंड जैसे प्रदेश का तो आपदा के साथ चोली-दामन जैसा रिश्ता है। बात चाहे मानसून सीजन की हो अथवा सर्दियों की, कुदरत कब कुपित हो जाए कहा नहीं जा सकता। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन के मुहाने पर चिन्हित गांवों का भी जल्द से जल्द विस्थापन किया जाना चाहिए। फिर चाहे टिहरी झील के किनारे के इलाके हों या मलारी में रैणी के पास जुग्जू गांव, जहां भूस्खलन के डर से ग्रामीणों को गुफाओं में शरण लेनी पड़ती है।