अनिल अनूप
भारत में मजदूरों की स्थिति क्या है, फिलहाल विश्लेषण का विषय यह नहीं है, लेकिन कोरोना वायरस और लॉकडाउन के इस दौर में मजदूर का अस्तित्व असमंजस में क्यों है? वह तड़प क्यों रहा है? उसके रोज़गार की सुनिश्चितता सरकार ने तय क्यों नहीं की? ये सवाल मानवीय भी हैं और देश की श्रम-शक्ति से भी जुड़े हैं। करीब 42 करोड़ लोग देश के अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते रहे हैं। ये आंकड़े ज्यादा भी हो सकते हैं, क्योंकि केंद्र सरकार के मंत्रालय ने ताजा आंकड़े उपलब्ध नहीं कराए हैं। बुनियादी तौर पर वे ही मज़दूर हैं। वे ही देश की औद्योगिक सक्रियता की बुनियाद और धुरी हैं। इस जमात ने लॉकडाउन के 40 दिनों में भूख, तड़प और जिल्लत के ऐसे एहसास किए हैं कि अब वे अपने-अपने गांव, घर लौटने पर आमादा हैं। बेशक तीन मई के बाद उन 600 से अधिक जिलों में लॉकडाउन लगभग खुल सकता है, जो ओरेंज और ग्रीन श्रेणी के जिले माने जा रहे हैं। यानी वहां कोरोना वायरस का संक्रमण प्रभावहीन रहा है। सरकार ने 130 जिलों को ही ‘रेड ज़ोन’ में रखा है। वहां कोरोना संक्रमित केस लगातार सामने आ रहे हैं। दरअसल मज़दूर वर्ग से ऐसी बातें सामने आ रही हैं कि लॉकडाउन कम होने पर, बेशक, उद्योग-धंधे और फैक्ट्रियां खुल जाएं, लेकिन अब वे काम करने महानगरों में नहीं आएंगे, वहां के अंधेरों में नहीं रहेंगे। बेशक गांव, घर के आसपास के इलाकों में पर्याप्त संसाधन, स्रोत और औद्योगिक प्रतिष्ठान नहीं हैं, सड़क और भवन निर्माण के अवसर पहले से ही आवंटित हैं, मनरेगा के अवसर भी सीमित हैं, यानी काम करने की संभावनाएं महानगरों की तुलना में बेहद बौनी हैं। इसके बावजूद औसत मज़दूर शहर नहीं आने पर आमादा है, गंभीर आश्चर्य है। यदि देश का यह कार्यबल ही निकम्मा बैठ जाए या गांवों तक सिमट कर रहना चाहे, तो यह कई तरह के विकास-आयामों पर प्रश्नचिह्न होगा। बुनियादी और गंभीर सवाल यह है कि लॉकडाउन के दौर में देश की मज़दूर जमात इतनी बेचैन और निरीह क्यों दिखाई दी? हालांकि केंद्र सरकार ने करीब 80 करोड़ गरीबों तक खाद्यान्न भेजने की घोषणा की थी, केंद्रीय गृह मंत्रालय की रोज़ाना ब्रीफिंग के दौरान यह गिनती दोहराई जाती रही है कि 1.25 या 1.5 करोड़ गरीबों को, हजारों राहत-शिविरों में, भोजन मुहैया कराया जा रहा है। समाजसेवी संस्थाएं भी भोजन बांटती रही हैं। राज्य सरकारों ने भी व्यापक स्तर पर बंदोबस्त किए हैं कि आम आदमी भूखा न सोये। राशन भी बांटा जाता रहा है। कुछ ‘देवदूत’ अपने ही स्तर पर दाल, चावल, रोटी आदि मुहैया कराते रहे हैं। कमोबेश इस गरीब जमात में ‘मज़दूर’ भी शामिल होंगे! तो फिर वे भूखे, परेशान और रुआंसे क्यों दिखाई देते रहे हैं? चूंकि अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी है कि विभिन्न राज्यों में फंसे मज़दूर, छात्र, सैलानी अपने-अपने गांव, घर और गंतव्य तक जा सकते हैं। हालांकि इसमें भी कई सरकारी पेंच हैं, लेकिन वे ‘मझधार’ के पार तो जा सकेंगे, लिहाजा लाखों मजदूर बिहार सरकार को फोन करके गुहार कर रहे हैं कि उन्हें उनके गांव, घर तक छोड़ दें। चूंकि मज़दूरों की संख्या बहुत है, लिहाजा बिहार, पंजाब, तेलंगाना और केरल सरकारों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि फंसे लोगों के लिए विशेष टे्रन चलाई जाएं, ताकि समय से वे अपने घर पहुंच सकें। यह आलेख लिखने तक केंद्र सरकार का कोई भी निर्णय सार्वजनिक नहीं हुआ था। हालांकि पंजाब के मुख्यमंत्री का कहना था कि करीब 10 लाख मज़दूर बिहार, उप्र और झारखंड ही भेजने हैं। उधर करीब चार लाख मज़दूर उप्र जाने हैं, लेकिन राज्य ने अपनी सीमाएं सील कर रखी हैं। राजस्थान से लेकर कर्नाटक, हैदराबाद, चेन्नई, मुंबई आदि राज्यों-शहरों तक मज़दूर हर जगह फैले और फंसे हैं। नौकरी और काम की गारंटी खुद प्रधानमंत्री ने दी थी, लेकिन आज लाखों मज़दूर दया और भीख को मोहताज क्यों लग रहे हैं? क्या 40 दिनों में ही औद्योगिक संस्थान विपन्न हो सकते हैं? यह गंभीर दौर है। लॉकडाउन कुछ ढीला भी हो जाए और कारोबार शुरू भी हो जाए, केंद्रीय कैबिनेट विदेशी और स्थानीय निवेश को लेकर लगातार बैठकें कर रही है, लेकिन मज़दूर जमात नई जिद लेकर बैठ जाए, तो उसका तात्कालिक समाधान क्या होगा?