अनिल अनूप
महिलाओं के घर के भीतर की जिंदगी अनेक दांव-पेचों से घिरी होती है। तमाम व्यस्तताओं के बाद कलम को पकड़ना उसे थकाता नहीं, अपितु विश्रांति प्रदान करता है। कर्फ्यू, लॉकडाउन में यह जिम्मेदारी और भी अधिक तब बढ़ जाती है जब वह रसोईघर, दैनिक कार्यों में लिप्त, बच्चों की पढ़ाई, वर्क फ्रॉम होम करती विद्यालय के बच्चों के भविष्य को भी रोपती व सहेजती है। यह लॉकडाउन का वक्त थमता नहीं, अपितु पंख लगाकर उड़ता है। किसी पल मन कभी अवसाद से भर जाता है तो दूसरे ही पल बाहर निकलने को भी फड़फड़ाता है। दिमागी तौर पर स्वयं को संतुलित करना ही इस समय आवश्यक हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक रूप से सशक्त होना जरूरी होता है। जो लोग, जो बातें उन्हें खुशी दें, आराम दें, उन्हीं का संग करना इस समय सर्वोपरि हो जाता है। इस समय जब सारा देश बंद है, उस समय सोशल मीडिया, टेलीविजन, रेडियो, समाचारपत्र ही एकमात्र सहारा हैं जो हमें बाह्या जगत से जोड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर जब भी हम जाते हैं तो हम लेटेस्ट अपडेट्स या मानसिक शांति को पाना चाहते हैं। परंतु कभी-कभी यही सोशल मीडिया झूठी अफवाहों-खबरों का पुलिंदा भी बन जाता है। सोशल मीडिया का सदुपयोग होना चाहिए, न कि उसका दुरुपयोग। सरकारी, प्रशासनिक या समाचारों की डायरेक्ट साइट्स पर जाकर तमाम उन सवालों के जवाब लोगों को देखने चाहिए जिन्हें वे अकसर जानना चाहते हैं। इस विश्वव्यापी महामारी कोरोना में सोशल मीडिया अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन कर रहा है। संपूर्ण विश्व, देश, प्रदेश कोरोना की बीमारी से ग्रस्त हैं। इस समय एक ईमानदार साहित्यकार की अगर बात करें तो हम भी इस बीमारी के परिणामों से अछूते नहीं हैं। साहित्यकार समाज का हिस्सा है। वह समाज की समस्याओं, लोगों की भावनाओं से अछूता नहीं है।
तबलीगी जमात हो, पुलिस का हाथ काटने वाली बारात हो, साधु-संतों को मारने वाली बेरहम निर्दयी जनता हो, डाक्टरों पर थूकने वाले लोग हों, पुलिस या प्रशासन को कोसने वाले या गालियां देने वाले ही लोग जब अपने देश में हों तो इनसान का दुखी होना लाजिमी है। इस समय चिंतन, मनन की बात की जाए तो इनसानियत का असली चेहरा विद्रूप नजर आता है। कोरोना से मरने वाला व्यक्ति अपने घर के लोगों की लकड़ी से भी महरूम हो जाता है। उसके घरवाले, समाज वाले उसका सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। कोरोना योद्धाओं के प्रति यह अमानवीय, निंदनीय व्यवहार आज सभी के समक्ष अनेक रूपों में नजर आ रहा है। टेलीविजन पर रामायण, महाभारत के अतिरिक्त आजकल रामचरितमानस, दुर्गा स्तुति, शिव चालीसा आदि पौराणिक पुस्तकों को पढ़ा जा रहा है। लॉकडाउन में उन साहित्यकारों की किताबों को पढ़ने का अवसर मिल रहा है, जिन्होंने उपहारस्वरूप अपनी किताबें मुझे पढ़ने को दी थीं। इनमें रमेशचंद्र मस्ताना, डा. आर. वासुदेव प्रशांत, डा. पीयूष गुलेरी, डा. प्रत्यूष गुलेरी, सुरेश भारद्वाज निराश, विनोद कुमार भावुक, जन्मेजय गुलेरिया, डा. अशोक कुमार आस, कृष्णचंद्र महादेविया, बिशन सागर, अजय पराशर, आशा शैली, शिवा धरावेश, बबिता ओबराय, प्रभा मजुमदार और कृष्णा अवस्थी आदि साहित्यकार शामिल हैं। इनकी लिखी हुई किताबें कुछ कहती हैं और बहुत कुछ समझाती हैं। कोरोना के चलते कर्फ्यू, लॉकडाउन से संबंधित कुछ कविताएं, कहानियां व आलेख भी लिखे गए। लिखने से पहले न जाने कितने लंबे समय तक मानसिक उथल-पुथल चलती रहती है। इन सब बातों, घटनाओं ने मेरे मन की तह को छुआ, तत्पश्चात लेखनी में परिवर्तित हो गईं। साहित्यिक जिंदगी भी अब मेरी रूह में शामिल हो गई है। स्वाध्याय और उनके विवेचन के तहत बहुत सारी गुत्थियां स्वयंमेव ही सुलझ जाती हैं। जिन बातों के जवाब हमें कहीं नहीं मिलते हैं, वे जवाब हमें किसी कविता, कहानी या आलेख में मिल जाते हैं।