श्रीमती दीप्ति सक्सेना
अनावश्यक रूप से जल स्रोतों दोहन कर रहे हैं, रसायन खिलाकर,असमय फल सब्जी पकाकर, प्रतिरक्षातंत्र कमजोर कर रहे, जीभ के स्वाद के लिए निरीह पशुओं की बलि ले रहे, जीवजंतुओं के नैसर्गिक आवास ध्वस्त कर उनके लिए काल बन रहे ओजोन के क्षरण में प्रतिपल योगदान दे रहे …
प्रकृति और पुरुष ईश्वर की अद्भुत रचना है। प्रकृति जड़ है परन्तु चेतन पुरुष के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है। प्रकृति पुरुष के उपभोग के लिए है अन्यथा इसका अस्तित्व ही व्यर्थ है। परन्तु ईशोपनिषद में लिखा है-‘त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ जिसके अनुसार सांसारिक पदार्थों का त्यागपूर्वक उपभोग करना है और लालच नहीं करना है। आज पर्यावरण बचाने की मुहिम जोर शोर से चल रही है, यह प्रमाण है मनुष्य की घातक स्वार्थपूरित इच्छाओं ने किस प्रकार प्रकृति का दोहन किया है।अनंतकाल से भारतीय संस्कृति में प्रकृति का देव तुल्य पूजन हुआ है। इनके पूजन के पीछे क्या संदेश है? जबतक जल,वायु,अग्नि,भूमि और गगन को देवता समझ गया कोई प्रदूषण जैसी समस्या नहीं उठी। मगर जैसे ही आधुनिकता (अज्ञानता) के रंग में रंगे विदेशियों ने मज़ाक बनाना शुरू किया हमें लज्जा आने लगी।अंधविश्वास मत करिए लेकिन विश्वास करिए कि यदि आप प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं करोगे तो वो जब अपने अनुसार सामंजस्य बैठाएगी,आप सहन नहीं कर पाओगे।
भोग विलास की संस्कृति का अनिष्टकारी परिणाम सामने है। हमें समय देना ही होगा अपनी व्यस्त दिनचर्या में से।
एक साधारण व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण में अपना बड़ा योगदान दे सकता है… जल बर्बाद नहीं करे, विद्युत का सदुपयोग करे, ईंधन का कम उपयोग करे,अधिकाधिक वृक्षारोपण करे आदि आदि। परंतु प्रश्न है कि वो असाधारण मनुष्य जो जंगल-जंगल उजाड़ कर सड़कें और इमारतें बनवा रहे हैं, हरे वृक्षों का अंधाधुंध कटान कर इमारती लकड़ी उपलब्ध करा रहे हैं, नित्य नवीन फैक्ट्रीयां स्थापित कर धुएं का गुबार वायु में छोड़ रहे और अपशिष्ट पदार्थ नदियों में बहा रहे हैं, अधिक एवं उत्तम फसलोत्पादन हेतु अनावश्यक रूप से जल स्रोतों दोहन कर रहे हैं, रसायन खिलाकर,असमय फल सब्जी पकाकर, प्रतिरक्षातंत्र कमजोर कर रहे, जीभ के स्वाद के लिए निरीह पशुओं की बलि ले रहे, जीवजंतुओं के नैसर्गिक आवास ध्वस्त कर उनके लिए काल बन रहे ओजोन के क्षरण में प्रतिपल योगदान दे रहे , इनके आगे हमारे प्रयास कितने सफल होंगे? हमारे प्रयास अगर एक कदम आगे ले जाएंगे तो वो चार कदम पीछे ले आएंगे।
कहने का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं कि हम कुछ नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि उक्त प्रकार के लोगों कर शिकंजा कसना बहुत आवश्यक है। यदि खानपान में संयम न बरता जाए तो केवल दवा रोग सही नहीं कर सकती। प्रत्येक व्यक्ति को इस दिशा में प्रयासरत होना होगा। छोटे-छोटे प्रयास ही बड़े लक्ष्य को भेदते हैं। हम सभी (सम्पूर्ण मानवजाति) को अपनी जीवनशैली में बड़े परिवर्तन करने होंगे और पुरानी जीवन पद्धति को आज के परिपेक्ष्य में जितना संभव हो बिना लज्जा के अपनाना होगा। भोग विलास की संस्कृति का अनिष्टकारी परिणाम सामने है। हमें समय देना ही होगा अपनी व्यस्त दिनचर्या में से। घर में छोटे बगीचे या टेरेस गार्डन विकसित करके, वर्षा जल का भंडारण करके,प्लास्टिक-पॉलिथीन का बहिष्कार करके,माइक्रोवेव,रेफ्रिजरेटर,एयरकंडिशनर जैसी आधुनिकता का प्रतीक मशीनों का कम प्रयोग करके,बाइसिकल को गरीबी से न जोड़कर कम दूरी उसी से तय करने जैसे कई उपाय कारगर हो सकते हैं पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिए।
बस एक आखिरी बात और कहना चाहूँगी कि आज समय की मांग है कि मोबाइल की आभासी दुनिया से बाहर आकर हम पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन में योगदान दें।हमे खुद को बचाना है इसलिए ये उपाय करने हैं। प्रकृति हमारी दास नहीं, हम उसके नियंता नहीं, हमें सामंजस्य स्थापित करना है…अन्यथा मनुष्य की क्रूरता का प्रत्युत्तर प्रकृति को बखूबी आता है।
(सहायक अध्यापक) विद्यालय-पू0मा0वि0 कटसारी,
वि0क्षे0-आलमपुर जाफराबाद, जनपद- बरेली, उत्तर प्रदेश।