अनिल अनूप
भारत और चीन के बीच युद्ध के आसार नहीं हैं। अलबत्ता सरहद पर तनाव और तनातनी बरकरार रहेंगे। यह चीन की सामान्य कवायद है। चीन एक साथ कई मोर्चे नहीं खोल सकता। फिलहाल वह हांगकांग, ताइवान, दक्षिण चीन सागर और पाकिस्तान में नाजुक मोर्चों पर व्यस्त है। अमरीका हर रोज उसे धमका रहा है और नेपाल के मुद्दे पर ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। लद्दाख इलाके की सरहद पर 1975 के बाद कभी भी गोलीबारी नहीं हुई है। यह देश के कुछ शीर्ष रक्षा विशेषज्ञों के आकलन का सारांश है। तनाव इतना पसरा है कि चीनी सेना के 5000 से ज्यादा सैनिक लद्दाख के गालवन घाटी, पेंगोंग, हॉट स्प्रिंग आदि क्षेत्रों में मौजूद हैं। हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का भी मानना है कि चीनी सैनिकों की संख्या अच्छी-खासी है। भारतीय थलसेना और वायुसेना के सैनिक किसी भी परिस्थिति का सामना करने को तैनात हैं। दोनों तरफ के सैनिक कई बार गुत्थमगुत्था हो चुके हैं, हाथापाई की नौबत भी आई है। ऐसा 2017 में हम डोकलाम में भी देख चुके हैं, लेकिन हालात कभी भी इस हद तक नहीं पहुंचे कि जहां युद्ध अपरिहार्य हो जाए। चीन का विदेश मंत्रालय और भारत स्थित दूतावास बार-बार बयान जारी करते रहे हैं कि स्थितियां स्थिर और नियंत्रण में हैं। हम अपने द्विपक्षीय मतभेद और विवाद आपसी बातचीत से सुलझाने को प्रतिबद्ध हैं। विवादों के कारण हम रिश्ते नहीं बिगाड़ सकते। ऐसे बयानों के बावजूद सैन्य कमांडर और मेजर जनरल स्तर की बैठकें और संवाद बेनतीजा रहे हैं, लिहाजा अब निर्णय लिया गया है कि लेफ्टिनेंट जनरल स्तर के सैन्य अधिकारी बातचीत करेंगे। संभवतः यह संवाद छह जून को होगा! टकराव और विवाद के हालात बने लगभग एक माह का समय बीत चुका है, लेकिन अभी तक समझ के परे है कि आखिर चीन की मंशा क्या है? क्या वह अपनी कब्जेबाज और विस्तारवादी रणनीतियों को भारत पर भी आजमाना चाहता है? रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि जब तक चीन की इस रणनीति की काट तैयार नहीं की जाती, तब तक ऐसे अतिक्रमण और तनाव की आशंकाएं बनी रहेंगी। एक और मुद्दा इस विवाद के बीच से उभरता रहा है कि हमें चीनी उत्पादों का बहिष्कार कर देना चाहिए। यह संभव नहीं लगता, क्योंकि भारतीय बाजार और उपभोक्ताओं में चीन की पैठ गहरी है। हाल ही में हमारी ही स्टार्टअप कंपनियों में चीनी कंपनियों ने 400 करोड़ डॉलर का निवेश किया है। बहरहाल चीन के साथ तनातनी का एक बुनियादी कारण यह भी नहीं है कि वहां सक्रिय रही करीब 1000 कंपनियां अब भारत में अपना कारोबार स्थापित करना चाहती हैं। कोई सहमति-पत्र बना है और उस पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं अथवा उन कंपनियों की इच्छा है। कोरोना वायरस इसका बुनियादी कारण हो सकता है। लिहाजा इस अनिश्चित कारण पर भी सेनाएं टकराव की मुद्रा में नहीं आ सकतीं। दरअसल बुनियादी कारण चीन की कब्जेवादी फितरत ही है। चूंकि भारत और चीन के बीच सीमा-विवाद सनातन है। दोनों देशों के बीच की नियंत्रण-रेखा ही वास्तविक है, लेकिन उस पर भी सहमति नहीं है, लिहाजा किसी भी तनाव के दौरान या सामान्य गतिविधियों के तहत सैनिक जहां तक आ जाते हैं या आधारभूत ढांचे का निर्माण हो जाता है, तो देश उसे ही अपना हिस्सा मानने की जिद करते हैं। हमने भी सड़कें बनाई हैं, रेल और सड़क के ब्रिज बनाए हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लिपुलेख तक सड़क का उद्घाटन भी किया है। चीनी बॉर्डर पर 2022 तक 61 रणनीतिक सड़कें भी बनाने का लक्ष्य है। इसी तरह चीन ने भी विवादास्पद जगह पर कब्जे कर निर्माण किया है। वह पाक अधिकृत कश्मीर में बिजली पैदा करने को प्रोजेक्ट स्थापित करने की फिराक में है। लेकिन अभी यह तथ्यात्मक नहीं है कि चीन हमारी घोषित सरहद के 40-50 किलोमीटर भीतर तक घुस आया है। चीन को डोकलाम में भी कुछ पीछे हटना पड़ा था और लद्दाख में भी पैर खींचने पड़ सकते हैं, लेकिन बदले में वह कुछ अहम रियायतों की मांग कर सकता है। चीन हमारा पड़ोसी देश भी है और मित्रता के दावे भी करता रहा है। मोदी सरकार के दौरान ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अहमदाबाद और महाबलीपुरम में पधार कर मेहमाननवाजी के लुत्फ उठाए हैं। समझ नहीं आता कि साथ झूला झूलने वाले और गरमजोशी से आलिंगन करने वाले नेताओं के देशों की सेनाएं आमने-सामने तनाव में क्यों तैनात हो जाती हैं? नेताओं में कोई तो बातचीत होती होगी। फिर विवाद इतने लंबे और स्थायी से क्यों होते जा रहे हैं? बहरहाल सैन्य और राजनयिक स्तर के संवादों के निष्कर्षों की प्रतीक्षा करते हैं।