अनिल अनूप
कोरोना का कहर शुरू होने के बाद से बीते बुधवार को पहली बार इस महामारी से लड़कर जीत जाने वालों की तादाद (1,35,205) इसके चंगुल में फंसे लोगों (1,33,632) से ज्यादा दर्ज की गई। इस बात के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन क्या इस आधार पर यह नतीजा निकालना उचित होगा कि भारत में महामारी का जोर अब कम होना शुरू हो गया है? इस सवाल का सही जवाब पाने के लिए हमें दो बिंदुओं पर ध्यान देना होगा। पहला यह कि रोज आने वाले मामलों में कमी का कोई रुझान दिख रहा है या नहीं। साफ है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा। मई के अंत में रोजाना औसतन पांच हजार मामले आने शुरू हुए तो घबराहट सी होने लगी थी। लेकिन इधर एक हफ्ते से लगभग दस हजार मामले हर रोज दर्ज किए जाने लगे हैं। दूसरा खास बिंदु यह कि रिकवर या ठीक हो चुका मामला हम किसे मानते हैं।
राजधानी दिल्ली में कोरोना के बढ़ते मामलों के पहले ही हांफ रही दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खुलती जा रही है। अपने जवाबदेही से बचने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री अजीबोगरीब बयान दे रहे हैं। पहले मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बयान दिया कि अब दिल्ली में सिर्फ दिल्ली के रहने वालों का ही इलाज होगा और अन्य राज्यों से आने वाले लोगों का नहीं। केजरीवाल के इस बयान पर बवाल मचना लाजिमी था। इस पर दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने केजरीवाल का फैसला रद्द कर दिया।
केजरीवाल का फैसला अनुचित था। उपराज्यपाल कार्यांलय की ओर से मंगलवार को कहा गया कि दिल्ली सरकार का फैसला समानता का अधिकार, जीवन का अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार जैसे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है इसलिए इसे रद्द किया जाता है। इस पर मंगलवार को दिल्ली डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एसडीएमए) की बैठक के बाद दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने पूरी दिल्ली में दहशत पैदा करने वाला यह बयान दे डाला कि जिस रफ्तार से दिल्ली में केस बढ़ रहे हैं उसके मुताबिक दिल्ली में 31 जुलाईं तक 5.5 लाख कोरोना मरीज होंगे और 31 जुलाईं तक 80 हजार बैड की जरूरत होगी। दिल्ली के उपराज्यपाल को जिम्मेदार ठहराते हुए सिसोदिया ने सारी जिम्मेदारी उपराज्यपाल पर थोपने की कोशिश की। यानि कि दिल्ली में अगर कोरोना केस बढ़ते हैं तो इसका कारण उपराज्यपाल होंगे क्योंकि हमारे पास इतनी संख्या में मरीजों के लिए न तो कोईं व्यवस्था है और न ही इतने बैड उपलब्ध हैं। दरअसल मामला हक का नहीं है। संकट के दौर में किसी पीड़ित का इलाज करने से सिर्फ इसलिए मना कर देना कि वह राज्य का स्थानीय निवासी नहीं है, यह अमानवीय लगता है। यह वैसी घटनाओं से वैसे अलग है, जिसमें महंगा निजी अस्पताल खर्च नहीं उठा पाने की वजह से किसी मरीज का इलाज करने से मना कर देता है।
मानवीय दृष्टि से किसी बीमार व्यक्ति की मदद और मरीज के इलाज का अधिकार—दोनों लिहाज से यह उचित नहीं था कि क्षेत्र के आधार पर किसी को उपचार से वंचित रखा जाए। देश की राजधानी होने के नाते यह दिल्ली के लिए बेशक असुविधाजनक स्थिति थी। इसलिए स्वाभाविक ही दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने अरविन्द केजरीवाल सरकार का फैसला पलट दिया और कहा कि दिल्ली सिर्फ वुछ लोगों की नहीं, दिल्ली सबकी है। गौरतलब है कि इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर कहा है कि सभी को जीने का अधिकार है। इसलिए कोईं भी अस्पताल या नर्सिग होम किसी मरीज से भेदभाव नहीं करेगा। यूं भी देश के नागरिक को देश की राजधानी में ही वैश्विक महामारी जैसी आपदा में इलाज से वंचित वैसे किया जा सकता है। मनीष सिसोदिया ने आशंका जताईं है कि जुलाईं के अंत तक संक्रमण के मामलों की संख्या पांच लाख तक पहुंच सकती है। सवाल है कि अगर यह आशंका सच होती है तो दिल्ली सरकार ने उसके लिए क्या तैयारी की है? दिल्ली सरकार ने 2015 में सत्ता में आने के बाद दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाएं हों या अस्पतालों की संख्या या उनमें उपलब्ध बैड की संख्या को कितना बढ़ाया है? पिछले पांच सालों में इस प्राकार की आपदा के लिए कितनी तैयारी की। आज जब स्थिति बेकाबू हो रही है तो केजरीवाल हाथ खड़े कर रहे हैं।