अनिल अनूप
तालियां और थालियां बजा कर कोरोना वायरस को समाप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिए बेहतर और सतत रणनीतियों की दरकार है। यदि आज न्यूजीलैंड, स्वीडन, जापान और मंगोलिया सरीखे देश लगभग कोरोना-मुक्त हैं, तो उसमें उनकी रणनीति, धैर्य और कठोर अनुशासन का ही योगदान है। भारत दुनिया का ऐसा देश है, जहां कोरोना संक्रमण के गंभीर चरण में जाने के अनुमान हैं, लेकिन बहुत कुछ ‘अनलॉक’ कर दिया गया है। मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे गुलजार हो उठे हैं। यदि अब भी इन पर लॉकडाउन लागू रहता, तो कमोबेश अर्थव्यवस्था का नुकसान न होता, लेकिन धार्मिक स्थलों की भीड़, अंततः, संक्रमण की स्थिति को भयावह बना सकती है। बहरहाल हमारा मुख्य मुद्दा यह नहीं है। दरअसल दिल्ली के उपराज्यपाल की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंधन अथॉरिटी की बैठक हुई है। विमर्श की बुनियादी चिंता सामुदायिक संक्रमण की रही। विश्लेषण किए गए कि ऐसे संक्रमण की नौबत आ गई है अथवा नहीं! यदि बैठक के बाद पारदर्शिता से खुलासा किया जाता है, तो हम समझने की कोशिश करेंगे कि सामुदायिक संक्रमण के मायने क्या हैं? और क्या हमें नए सिरे से स्वास्थ्य का प्रोटोकॉल तय करके कोरोना वायरस के खिलाफ नई मोर्चेबंदी करनी पड़ेगी? प्रमुख चिकित्सक और विशेषज्ञ अब भी मान रहे हैं कि सामुदायिक संक्रमण दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, चेन्नई सरीखे कोरोना के उपरिकेंद्रों तक ही सीमित हो सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर फिलहाल इसका विस्तार नहीं हुआ है। सामुदायिक संक्रमण कोरोना से उपजे हालात के अंतिम चरण से पहले का दौर है। अंतिम चरण में तो सरकारें हाथ खड़े कर लेती हैं। सामुदायिक संक्रमण भी तब माना जाता है, जब संक्रमण चारों ओर से फैलता है और पता ही नहीं चलता कि संक्रमण किसके संपर्क में आने से फैला है। यानी संक्रमण का स्रोत ही निश्चित नहीं होता। क्या दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद और चेन्नई में कोरोना संक्रमण की यही स्थिति है? दिल्ली में संक्रमित लोगों का आंकड़ा 30,000 पार कर चुका है और मुंबई में यह आंकड़ा 50,000 के पार है। पूरे महाराष्ट्र में संक्रमितों की संख्या 88,000 से अधिक है,जो चीन के कुल आंकड़े से काफी ज्यादा तक पहुंच चुका है। क्या ये शहर और राज्य सामुदायिक संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं? देश की राजधानी दिल्ली के बारे में डाक्टरों के आकलन भी डराने वाले हैं कि आगामी एक-डेढ़ माह के अंतराल में दो लाख से अधिक कोरोना संक्रमित मरीज हो सकते हैं, लिहाजा अस्पतालों में करीब 1.5 लाख बिस्तरों की जरूरत पड़ेगी। मौजूदा दौर के रुझानों के आधार पर डा. महेश वर्मा कमेटी का भी निष्कर्ष है कि जून के अंत तक दिल्ली में करीब एक लाख मरीज हो सकते हैं। यह कमेटी वही है, जिसे मुख्यमंत्री केजरीवाल ने गठित किया था और जिसके निष्कर्ष पर दिल्ली कैबिनेट ने फैसला लिया था कि दिल्ली सरकार के अस्पताल सिर्फ दिल्लीवालों के लिए ही आरक्षित रहेंगे। उपराज्यपाल ने आपदा प्रबंधन कानून में निहित अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए कैबिनेट के उस फैसले को रद्द कर दिया। अब एक और आपदा सामने मौजूद है कि दिल्लीवाले कहां जाकर इलाज कराएं? मुंबई और महाराष्ट्र का संक्रमण दिल्ली से अधिक व्यापक और खतरनाक है, लिहाजा सामुदायिक संक्रमण पर चिंतन करना बेहद जरूरी है। इस विषय पर केंद्र सरकार फिलहाल खामोश है। उसे लगता है कि अनलॉक करके उसका दायित्व खत्म हो गया, लिहाजा अब राज्य सरकारें चिंता करें। दरअसल कोरोना वायरस के इस दौर में अस्पतालों की अराजकता भी सामने आ रही है। आम आदमी भर्ती होने और इलाज पाने के लिए इधर से उधर भाग रहा है, लेकिन अंत में मर भी रहा है। किसी भी तरह के तालमेल और सामंजस्य न होने के कारण जिंदगी कहीं की नहीं रही। बेशक केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर ढेरों दावे किए जाते रहे, लिहाजा अब हमें लगता है कि तालियां और थालियां बजाने से ही कोरोना के खिलाफ जंग नहीं जीती जा सकती और न ही मोमबत्ती या दीया जलाकर हालात को उजालों में तबदील किया जा सकता है। अब सोचना पड़ रहा है कि यदि सामुदायिक संक्रमण के हालात देश भर में बन गए, तो आम आदमी, मरीज और देश के नागरिक का क्या होगा?