अनिल अनूप
जिस समय देश की प्रस्तावित नई शिक्षा नीति पर चर्चाएं जारी हैं, उसी समय जम्मू-कश्मीर में करीब 15 लाख बच्चे बुनियादी और प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं। उनके पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है अथवा अब भी कई जगह पाबंदियां चस्पां हैं, लिहाजा ऑनलाइन शिक्षा के जरिए भी कश्मीरी बच्चे औपचारिक शिक्षा कैसे हासिल कर सकते हैं? जम्मू-कश्मीर में यह स्थिति 5 अगस्त, 2019 के बाद की है, जब संसद ने अनुच्छेद 370 और 35-ए को समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया था। अब केंद्रीय गृह मंत्रालय का कहना है कि पाबंदियां 19 अगस्त तक जारी रहेंगी। एक साल से अधिक का वक्त बर्बाद हो जाएगा। मान सकते हैं कि तब हालात उग्र और बदतर थे। उसके बाद इंटरनेट को खोला और बंद किया जाता रहा। कश्मीर में 4-जी ब्रॉड बैंड आज भी एक स्वप्न है। बाद में कोरोना वायरस और लॉकडाउन ने रही-सही संभावनाएं भी कुचल दीं। दरअसल कश्मीर का संदर्भ इसलिए जरूरी है,क्योंकि नई शिक्षा नीति में ऑनलाइन पढ़ाई पर बहुत जोर दिया गया है। प्राथमिकता डिजिटल की ही है। नीति यह तय की गई है कि एक समय के बाद नियमित और प्रत्यक्ष किताबी शिक्षा 40 फीसदी से भी कम कर दी जाए। इस नीति का विरोध फूटने लगा है और इसका देशव्यापी विस्तार हो सकता है। जो बच्चे गरीब, अज्ञानी, आदिवासी, कबीलाई और मूलतः अनपढ़ हैं, इंटरनेट की प्रौद्योगिकी नहीं जानते-समझते, उन पर ऑनलाइन शिक्षा क्यों थोपी जा रही है? शिक्षण, अध्यापन और विद्यालयों की व्यवस्था में आमूल गंभीर बदलाव किए जाने चाहिए, लेकिन पढ़ाई की बुनियादी और प्रचलित पद्धति से छेड़छाड़ क्यों की जाए? यह उस कालखंड की महान देन है, जब विश्व पाषाणकाल से निकल कर मध्यकाल में संघर्ष कर रहा था और विश्व में ‘अखंड भारत’ जैसी शिक्षा, गुरुकुल, पाठशालाओं आदि की व्यवस्था नहीं थी। यदि सरकार शिक्षा में भी कॉरपोरेट कारोबार को स्थापित करना चाहती है, तो अलग बात है, लेकिन उस नीति का पुरजोर विरोध होगा, क्योंकि शिक्षा प्रदान करना सरकार का बुनियादी दायित्व है। यही कारण है कि सरकार ने जिस दस्तावेज और मसविदे के आधार पर देश की जनता और विशेषज्ञों के सुझाव आमंत्रित किए थे, उस संदर्भ में डेढ़ माह के दौरान ही करीब 65,000 सुझाव आए। हालांकि अवधि दो माह कर दी गई थी, लेकिन प्रतिक्रियाओं की बौछार ऐसी हुई कि सरकार ने अपने स्रोतों और साधनों के दरवाजे बंद कर लिए, ताकि अवांछित सुझाव न आ सकें। बहरहाल यह ही शिक्षा नीति नहीं है, बल्कि सरकार की राजनीतिक नीयत स्पष्ट होती है। करीब 34 साल बाद शिक्षा में बदलावों के प्रयासों की प्रक्रिया शुरू की गई है, लेकिन हम कुछ सवाल जरूर करेंगे। भाजपा को जमीन और राजनीतिक संस्कार देने वाले आर.एस.एस. ने भी सवाल उठाए हैं। हालांकि शिक्षा नीति का मसविदा तैयार करने की प्रक्रिया में संघ के नेताओं, भारत सरकार के प्रतिनिधियों, भाजपा-शासित कुछ राज्यों के शिक्षा मंत्रियों और मसविदा कमेटी के अध्यक्ष के.कस्तूरीरंगन आदि ने विमर्श किया था। संघ के हिस्से सिर्फ इतनी-सी रियायत ही आई कि सरकार ने मंत्रालय का नामकरण बदल कर ‘शिक्षा मंत्रालय’ कर दिया, लेकिन संघ के ही प्रमुख संगठन ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर भारत में स्थापित करने की योजना और सोच का विरोध किया था। सरकार ने उसे अनसुना कर दिया और मसविदे के जरिए घोषणा की कि विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों को भारत में आने का आमंत्रण दिया जाएगा। बेशक इससे शिक्षा नीति का विस्तार होगा, छात्रों और प्रतिभाशाली अध्यापकों के लिए नए आयाम खुलेंगे, लेकिन उन स्वदेशी विश्वविद्यालयों का क्या होगा, जिनके पुनरोत्थान की घोषणा खुद प्रधानमंत्री मोदी ने की थी? विदेशी शिक्षण संस्थानों की तुलना में भारतीय विश्वविद्यालय दोयम दर्जे के व्यवहार के शिकार तो नहीं होंगे? उच्च शिक्षा का संदर्भ है, तो सवाल किया जा सकता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अस्तित्व खत्म करके ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ का गठन क्यों किया जा रहा है? प्रस्तावित आयोग के अधीन चार स्वतंत्र संस्थाएं वही काम करेंगी, जो यूजीसी किया करता था। सभी विवि और कॉलेज 2040 तक बहुविषयी होने का लक्ष्य तय करें। आईआईटी में विज्ञान और इंजीनियरिंग के साथ-साथ कला और मानविकी के विषय और कृतियां भी पढ़ाई जाएंगी। कला के छात्र भी विज्ञान पढ़ेंगे। यह लक्ष्य दूरगामी साबित हो सकता है, लेकिन त्रिभाषा फॉर्मूले और शुरुआती पढ़ाई के भाषायी माध्यम को लेकर पेंच हैं। एक बार फिर तमिलनाडु के राजनीतिक दलों ने हिंदी का विरोध किया है। मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा अनिवार्य करने के बजाय अंग्रेजी को भी विकल्प रखा गया है। बहरहाल शिक्षा नीति का मसविदा व्यापक है, लिहाजा एक ही आलेख में सभी आयाम नहीं आ सकते। स्कूल बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। समीक्षा का अगला चरण फिर लिखेंगे। तब तक इन सवालों पर चिंतन कीजिए।