अनिल अनूप
कश्मीरी पंडित सरपंच अजय पंडिता ‘भारती’ की हत्या, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद, आतंकवाद की ऐसी पहली चोट है। आतंकियों के निशाने पर कश्मीरी हिंदू ही नहीं, वहां का लोकतंत्र और पंचायती राज भी है। जेहाद के नाम पर सरपंच की हत्या की गई, ताकि लोकतंत्र की चूलें हिलाई जा सकें। यह बीते तीन दशकों से लगातार जारी है, लिहाजा यह हत्या कोई सामान्य घटना नहीं है। भारत सरकार और संसद ने कश्मीर के इतिहास से अनुच्छेद 370 और 35-ए को खुरच तो दिया, लेकिन उसके खिलाफ प्रतिक्रियाएं आतंकी हमलों और पत्थरबाजी सरीखी हरकतों के जरिए कौंधती रही हैं। कश्मीरी पंडितों का मुद््दा आज उतना गरम नहीं है, जितना 1989-90 के दौर में था। कश्मीर के सदियों पुराने इतिहास में पंडितों का वर्चस्व, सम्मान, विद्वत्ता और आबादी किस रूप में थे, आज उन्हें विवेच्य बनाकर दोहराने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है, लेकिन 1990 का दौर इस हत्याकांड ने एक बार फिर जिंदा कर दिया है। नरसंहार का जो दौर शुरू हुआ था और कश्मीरी पंडितों को विस्थापित होना पड़ा था, उस दौर को तो हम खत्म मान बैठे थे। कश्मीर में मुट्ठी भर पंडित बचे होंगे। जो वहां से बाहर निकल आए, वे या उनके बचे-खुचे परिवार लौटने को राजी नहीं थे। हालांकि उस दौर में हजारों घर उजाड़ दिए गए, मंदिर और पूजा-स्थल तोड़ दिए गए, संपत्तियां लूट ली गईं, बहू-बेटियों-बहनों की इज्जत लीर-लीर की गई, लेकिन कैसी न्याय-व्यवस्था है हमारी कि एक भी ज्ञात अपराधी, जेहादी और लुटेरे को दंडित नहीं किया गया। असंख्य याचिकाएं अनुत्तरित रहीं। अंततः मामला शांत होने लगा और कुछ कश्मीरी पंडित अपने-अपने शहर, गांव लौटने भी लगे। जिनका पुनर्वास दिल्ली और आसपास के इलाकों में हो गया, वे वहीं के होकर रह गए, लेकिन पंडिता जैसे कुछ परिवार थे, जो 1996 और बाद में कश्मीर लौट आए। उसके बाद कई आतंकी प्रहार हुए और धमकियां भी दी गईं, लेकिन कश्मीरी पंडित एक विश्वास और उम्मीद के सहारे अपनी जड़ों से चिपके रहे कि एक दिन हिंदुओं की वापसी होगी। उनका सम्यक पुनर्वास किया जाएगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उस विश्वास की नींव रखी थी। चूंकि कार्यपालिका की एक लघुतम इकाई-सरपंच-की हत्या करके उस उम्मीद को झकझोरा गया है। एक सरपंच की राजनीतिक हैसियत क्या होती है, जिस पर आतंकी ऐंठ सकते हैं या अहंकार का एहसास पाल सकते हैं? लेकिन इस घटना के प्रतीकात्मक मायने बहुत कुछ हो सकते हैं। कश्मीर में आतंकवाद अब भी सक्रिय है और वे घाटी को सामान्य होते नहीं देख सकते। अनुच्छेद 370 के बाद सत्ता बदली है, दो शक्ति-केंद्र के तौर पर संघशासित क्षेत्र बनाए गए हैं, फिजाएं भी बदल रही हैं, अब कश्मीर भी शेष भारत का अपना क्षेत्र है, लेकिन आज भी कश्मीर में करीब 230 आतंकी सक्रिय हैं। आज भी 100 से अधिक विदेशी आतंकी वहां हैं। करीब 150-200 आतंकी घुसपैठ करने की फिराक में हैं। बेशक बीते चार दिनों में हमारे रणबांकुरों ने 14 आतंकी ढेर किए हैं, इस साल में अभी तक 100 से ज्यादा आतंकी मारे जा चुके हैं, फिर भी जेहादी आतंकवाद जारी है। हमारी सेना और सुरक्षा बलों के ‘ऑल आउट’ ऑपरेशन ने आतंकियों की रीढ़ तोड़ दी है, लेकिन फिर भी वे पंडिता सरीखे कर्मठ और प्रतिबद्ध सरपंचों या जन-प्रतिनिधियों को निशाना बनाकर उनकी हत्या करने में कामयाब हो रहे हैं। अनुच्छेद 370 और 35-ए को समाप्त कर हमारी संसद और भारत सरकार ने ऐतिहासिक गलतियों में संशोधन किया है, लेकिन सियासत में भी महबूबा मुफ्ती सरीखा एक तबका ऐसा है, जो कश्मीरी पंडितों की वापसी को सहन नहीं कर पा रहा है, लिहाजा सरपंच अजय पंडिता की हत्या एक प्रतीकात्मक हरकत है। मुख्यमंत्री रहते हुए महबूबा ने इस मुद्दे को एक इंच भी आगे नहीं खिसकने दिया, लिहाजा कश्मीरी हिंदुओं की अपनी आवासीय कॉलोनी का ब्लूप्रिंट भी सिरे नहीं चढ़ पाया। हालांकि केंद्र सरकार के प्रयासों पर जम्मू की ओर शरणार्थी शिविर बनाए गए हैं, लेकिन अब भी कुछ परिवार ऐसे हैं, जो घाटी में ही बसे रहना चाहते हैं। उनकी हत्याएं की जा रही हैं। अनुच्छेद 370 के खिलाफ ऐसी आतंकी चोट का जवाब क्या होगा और कश्मीरी पंडितों को अंततः इंसाफ कब मिलेगा, उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।