अनिल अनूप
यह सर्वविदित तथ्य है कि खेती किसानों के लिये घाटे का सौदा बन चुकी है। ऐसे में यथास्थिति में बदलाव की अपरिहार्यता से इनकार भी नहीं किया जा सकता। निस्संदेह ऐसे बदलाव कृषि सुधारों के जरिये ही संभव हैं, जो दूरगामी परिणाम देने वाले हों। विडंबना यही है कि किसान इस देश का बड़ा वोट बैंक है और कोई भी सरकार यदि सकारात्मक बदलाव की ओर उन्मुख होती है तो किसानों की चिंताओं को विपक्ष अपने लिये एक अवसर में बदल देता है। यही वजह है कि कई दशकों से कृषि सुधार के हकीकत न बन पाने के कारण किसानों की समस्याओं का अंतहीन सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्र सरकार द्वारा हाल में लाये गये कृषि सुधार बिलों को लेकर लोकसभा में तो प्रतिरोध के स्वर मुखर नजर नहीं आये मगर रविवार को राज्यसभा में दो बिलों को पारित करने की प्रक्रिया में विपक्ष ने जिस तरह आक्रामकता दिखायी है, वह इस सदन की गरिमा के अनुकूल कतई नहीं कही जा सकती। उच्च सदन के बारे में धारणा रही है कि यहां देश के प्रबुद्ध जनप्रतिनिधि देशकाल-परिस्थितियों के अनुरूप फैसले करने में अग्रणी रहते हैं। उनके व्यवहार में परिपक्वता झलकती है। मगर राज्यसभा में रविवार को टकराव व असंसदीय व्यवहार का जो परिदृश्य उभरा, उसे संसदीय इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज किया जायेगा। निस्संदेह दो महत्वपूर्ण विधेयक पारित हो गये हैं। इन दो विधेयकों में जहां एक किसानों को किसान मंडियों से बाहर फसल बेचने की सुविधा उपलब्ध कराता है तो वहीं दूसरी ओर दूसरा विधेयक कॉन्ट्रैक्ट खेती की राह सुगम करता है जो निस्संदेह हरित क्रांति के उपरांत कृषि क्षेत्र के बड़े बदलावों में शुमार किये जा सकते हैं। साथ ही उम्मीद की जा सकती है कि इन बदलावों से भारतीय खेती में लंबे समय से विद्यमान समस्याओं का निराकरण हो पायेगा लेकिन राज्यसभा के घटनाक्रम और किसानों के बीच व्याप्त आशंकाओं से नयी तस्वीर उभरती है। बहरहाल राज्यसभा में रविवार के घटनाक्रम और आठ विपक्षी सांसदों के निलंबन ने कई सवालों को जन्म दिया है। सवाल यह भी है कि यदि विधेयक बदलाव के वाहक और महत्वपूर्ण हैं तो सरकार को इन्हें पारित कराने में इतनी जल्दबाजी करने की क्या जरूरत थी। सरकार ने विपक्ष की मत विभाजन की मांग को क्यों खारिज किया। हमें याद रखना चाहिए कि जीडीपी की तीव्र गिरावट के दौर में भारतीय कृषि ने आशाजनक परिणाम दिये हैं। ऐसे में यदि किसान आशंकाओं में घिरता है तो उसकी उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। राज्यसभा में हुए घटनाक्रम से किसान के मन में आशंका पैदा हो सकती है कि सरकार इन बिलों पर व्यापक विचार-विमर्श से बचना चाहती है। वैसे राज्यसभा में विपक्षी सदस्यों द्वारा उपसभापति से जैसा व्यवहार किया गया, नियम पुस्तिका फाड़ने की कोशिश हुई और माइक्रोफोन तोड़े गये, उससे किसानों व देश में अच्छा संदेश तो कदापि नहीं गया। मगर इसके बावजूद जब बारह विपक्षी दल विधेयकों के खिलाफ प्रस्ताव पर वोटिंग की मांग करते हैं तो उपसभापति को मत विभाजन की अनुमति देनी चाहिए थी। निस्संदेह हालिया घटनाक्रम से बिलों को पारित कराने की प्रकि्रया का अवमूल्यन हुआ है। सवाल यह भी उठता है कि यदि सही मायनो में सुधार किसानों की भलाई के लिये किये जा रहे हैं तो सरकार को संसद के भीतर और बाहर प्रत्येक प्रश्न का जवाब देते हुए विधेयकों को संसदीय प्रक्रिया से गुजरने देने से परहेज क्यों करना चाहिए था? यदि ऐसा होता तो किसानों में अच्छा संदेश जाता और उनकी आशंकाओं को निर्मूल साबित किया जा सकता। सरकार एक ओर न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा रही है और दूसरी ओर कृषि उपज विपणन मंडियों को बरकरार रखने की बात कर रही है, जिससे सुधारों को लेकर ऊहापोह की स्थिति नजर आती है। वहीं सरकार को विपक्ष से टकराव को टालने का प्रयास करना चाहिए था ताकि यह संदेश न जाये कि सरकार सत्ता के अहंकार में ऐसा कर रही है। सरकार से पारदर्शी व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए।