अनिल अनूप की से
अंतत: सात साल बाद देश को विचलित करने वाले निर्भया कांड के चार अपराधियों का डेथ वारंट जारी कर दिया गया है। अन्य बातें सामान्य रहीं तो 22 जनवरी को इन दोषियों को मौत की सजा दे दी जायेगी। भारतीय जनमानस के अंतर्मन को झिंझोड़ने वाले इस कांड की बाबत सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अपने फैसले में अपराधियों के कृत्य को जानवरों जैसा बताया था। पीठ ने आगे कहा, ‘ऐसा लगता है कि यह पूरा मामला किसी दूसरी दुनिया में घटित हुआ, जहां मानवता के साथ बर्बरता की जाती है।’ 16 दिसंबर, 2012 को हुए इस वीभत्स कांड की पीड़िता बाद में जीवन के संघर्ष की लड़ाई में हार गई थी। इस कांड के एक मुख्य आरोपी ने तिहाड़ जेल में आत्महत्या कर ली थी, दूसरा नाबालिग अभियुक्त बाल सुधार गृह से मुक्त हो चुका है। बहरहाल, इस कांड के बाद सदमे की सुनामी देश की सड़कों पर उतर आई थी। जनाक्रोश से सहमे सत्ताधीशों ने बलात्कार-नियंत्रण के कानूनों में बदलाव पर सहमति जतायी। फिर बलात्कार रोकने के कानून सख्त बने। कई जगह मृत्युदंड का प्रावधान भी किया गया। सोच यही थी कि दंड के भय से ऐसे अपराधों को अंजाम देने से पहले अपराधी दस बार सोचेंगे। लेकिन हालिया अनुभव बताता है कि ऐसे अमानवीय कृत्य रुके नहीं हैं। साफ है इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। विश्वास किया जाना चाहिए कि निर्भया कांड में चार अपराधियों को फांसी की सजा मिलने से यह संदेश ज्यादा प्रभावी ढंग से समाज में जायेगा। कुछ लोग कह सकते हैं कि निर्भया कांड के दोषियों को सजा मिलने में सात साल लग गये। नि:संदेह समय ज्यादा लगा मगर भारतीय न्याय व्यवस्था का मानना है कि भले ही देर से फैसला आए मगर किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। यही वजह है कि अंतिम समय तक बचाव का मौका दिया जाता है।
बहरहाल, समाज में इस सजा के बाद वह उलाहना तो खत्म होगी, जिसमें कहा जाता था कि निर्भया कांड के दोषियों को ही अब तक सजा नहीं मिली, फलां कांड में क्या होगा? वजह यही है कि इस कांड में अपराधियों ने बर्बरता की सभी हदें पार कर दी थीं। फैसले में विलंब पर यह सवाल उठाया जा रहा था कि ऐसे बर्बरता से अपराध करने वालों को सजा देने में देरी क्यों हो रही है। यही वजह है कि हैदराबाद की महिला चिकित्सक को गैंगरेप के बाद जलाये जाने पर अपराधियों के लिये हुए पुलिस न्याय की वकालत की जाने लगी। मगर ऐसा न्याय किसी सभ्य व लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। लेकिन न्यायिक व्यवस्था की उदारता का लाभ उठाकर तारीख पे तारीख का खेल खेलने की भी अनुमति नहीं दी जा सकती। फैसला फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिये हो, न कि कच्छप गति से। नि:संदेह न्याय में देरी जनमानस के धैर्य की परीक्षा लेती है। न्याय की शिथिल प्रक्रिया किसी भी सभ्य समाज की स्थापना में बाधक ही कही जा सकती है। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि सख्त कानूनों से ही यौन अपराधों पर अंकुश लग जायेगा। यह समाज पर भी सवालिया निशान ही है कि समाज में यौन कुंठाओं का विस्फोट किस वजह से है। हम समाज में कैसे नागरिक बना रहे हैं। कहीं न कहीं हम उच्च चरित्र वाले नागरिकों के निर्माण में विफल रहे हैं। मौजूदा दौर में नैतिक मूल्यों में तेजी से हुए पराभव और चरित्र निर्माण की दिशा में सार्थक पहल न होना कहीं न कहीं अपराधों को बढ़ावा दे रहा है। इस गंभीर विषय पर सरकार और समाज को गंभीरता से विचार करना होगा। कई गंभीर यौन अपराधों में लिप्त अपराधियों ने स्वीकारा है कि यौन हिंसा करने से पहले उन्होंने शराब पी और पोर्न साइटों पर अश्लील सामग्री देखी। सरकार को इस दिशा में भी कदम उठाने होंगे। साथ ही सख्त कानूनों के साथ यह भी जरूरी है कि ऐसे अपराधों की जांच तुरंत व वैज्ञानिक तरीकों से हो ताकि अपराधियों के खिलाफ मजबूत साक्ष्य अदालत में प्रस्तुत करके दोषियों को सजा दिलायी जा सके। देश में यौन हिंसा का लगातार बढ़ता ग्राफ समाज और सरकार की चिंता का विषय होना चाहिए।